Tuesday 6 January 2009

सिनेमा के भीतर का टेलीविजनः संदर्भ गजनी


गजनी फिल्म में मीडिया पार्टनर देश का एक बड़ा टेलीविजन चैनल समूह है, बल्कि देश का ही नहीं दुनिया के बड़े टेलीविजन समूह में इसका नाम है। फिल्म की मुख्य चरित्र कल्पना, पच्चीस लड़कियों के अपकरण किए जाने का विरोध करती है और किसी तरह उन्हें गुंड़ों औऱ दलालों से बचाकर वापस सुरक्षित मुंबई ले आती है। इस घटना को मीडिया पार्टनर होने के नाते चैनल अपनी धारदार शैली में दिखाता है कि बच्चियों का व्यापार शहर में तेजी से चल रहा है और इसके पीछे कुछ बड़े लोगों का हाथ है। फिर कल्पना ने उसे बचाया, उसकी बात की जाती है, कल्पना के बारे में बताया जाता है और उसकी तस्वीर मीडिया में छा जाती है। पच्चीस लड़कियों के एक ही साथ हाथ से निकल जाने और इससे भारी नुकसान होने वाले लोगों को अपने दुश्मन का पता लग जाता है और वो कल्पना की फ्लैट को चारों तरफ से घेर लेते हैं। बड़ी बेरहमी से कल्पना की हत्या कर दी जाती है .

गजनी फिल्म को देखने के बाद बाहर मेरे साथ वो लोग भी हो लिए जो सत्तर रुपये की टिकटें लेकर उपर फिल्म देख रहे थे। मैं नीचे था। फिल्म कैसी थी, इस चर्चा होती, इसके पहले ही एक ने कहा- क्या विनीतजी आप मीडिया के लोगों ने मरवा दिया न कल्पना, कितना अच्छा काम करती थी, अंधों को रास्ता पार करवाती थी, विकलांग बच्चियों को म्यूजियम के अंदर तक छोड़ आती थी, पुरुषों के हवश की शिकार हुई लड़कियों को पनाह देती थी औऱ आप मीडियावाले उसे टीवी पर दिखा-दिखाकर मरवा दिए, हद आदमी हैं महाराज आपलोग, आपके भीतर कलेजा नहीं धड़कता है क्या। मैं उस समय सिर्फ इतना ही कह पाया कि भई जिस बात के लिए आप मुझे जिम्मेवार ठहरा रहे हैं, मैं तो उसमें शामिल भी नहीं हूं औऱ फिर टेलिविज़न में कल्पना को इसलिए दिखाया गया कि देश की और भी लड़कियां, स्त्रियां उसकी तरह बन सके, विरोध करने का साहस पैदा कर सके, समाज में ये मैसेज पहुंचे कि उनके विरोध करने से चीजें पॉजिटिव तरीके से बदल सकती है। उन्होंने कहा- खैर, छोडिए,मैं तो मजाक कर रहा था, आप बेकार में ही सेंटी हुए जा रहे हैं। लोकिन एक बात फिर कहता हूं कि आप ही बताइए कि देश की कितनी लड़कियों को ये सीख मिली होगी कि समाज सेवा का काम हमेशा अच्छा होता है, उसको ये समझ में नहीं आया होगा कि बीच में टांग फंसाएंगे तो कल्पना की तरह बेमौत मारे जाएंगे, वो कल्पना जो अभी नई जिंदगी शुरु करती कि उससे पुरानी जिंदगी भी छिन ली गई। मैं कुछ कहता, इसके पहले ही बाकी के सारे लोग उसकी हां में हां मिलाने लग गए और कहा- एकदम सही बात कह रहा है। टेलीविजन किसी के गुंडे से, दलाल से, साम्प्रदायिक ताकतों से और देश के दुश्मनों से घिर लोगों को बचानेवाले की बात करता है तो क्या वो स्टोरी को उस रुप में स्थापित कर पाता है जिससे ये लगे कि हमें भी हिम्मती होना चाहिए, हमें भी समाज के पक्ष के लिए काम करना चाहिए।

ये सारी बातें मजाक में ही बड़े ही कैजुअल तरीके से होती रही लेकिन ये भी सच है कि सिर्फ एकलाइन कह देने के बाद कि अगर गजनी से आमिर खान को निकाल दो तो बाकी फिल्म में डब्बा है, सब चुप हो गए। सारी बहस इस बात पर आकर अटक गयी कि देश को दलालों से बचानेवाले लोगों की स्टोरी दिखानेवाले चैनल और टेलीविजन उनके लेकर कितने संजीदा होते हैं। क्या उस इंसान के प्रति उस अर्थ में संवेदनशील होते हैं कि उसे लगे कि भविष्य में भी हमें और भी बेहतर काम करने चाहिए।

गजनी फिल्म के भीतर जो टेलीविजन है उसमें कल्पना की स्टोरी समाज से उटाकर पेश नहीं की गयी, इसलिए चाहें तो ऑडिएंस निश्तिंत हो सकते हैं कि ये कहानी कि डिमांड रही कि एक समय के बाद कल्पना की हत्या होते दिखाना है। चैनल को ये सबकुछ दिखाना है क्योंकि वो इस फिल्म का मीडिया पार्टनर है, इसलिए कोई उससे भी जबाब तलब नहीं कर सकता कि आपने स्टोरी को उस रुप में दिखाकर जान क्यों ले ली। सबकुछ प्रोड्यूसर की इच्छा पर है और ये सबकुछ फिल्म के भीतर हुआ है इसलिए आप किसी को कल्पना की मौत के लिए अकाउंटेबल नहीं ठहरा सकते।

लेकिन क्या इस बात पर बहस की गुंजाइश है कि चैनल जिसे रातोंरात समाज को हीरो साबित करना चाहता है, जाहिर है ये काम टीआरपी बटोरने के लिए किए जाते हैं। इससे दोहरा लाभ होता है- एक तो ज्यादा से ज्यादा लोगों के ओसी स्टोरी देखने से चैनल की टीआरपी बढ़ती है औऱ दूसरा कि इससे चैनल की ब्रांड इमेज भी बनती है कि वो वो सोशली कितना कमिटेड है। किसी भी फिल्म में किसी भी चैनल के मीडिया पार्टनर या टीवी पार्टनर बनने के पीछे यही स्ट्रैटजी काम कर रही होती है कि फिल्म देखनेवाली ऑडिएंस इस सोशल कमिटमेंट वाले फंडे से जुडेगी और चैनल की व्यूअरशिप बढ़ेगी।


लेकिन अगर कोई ऑडिएंस फिल्म की कहानी से चैनल को जोड़कर देखने लग जाए, जैसा कि कल मेरे साथ देखनेवाले लोगों ने देखकर किया और फिल्म के निष्कर्ष को रीयल लाइफ के निष्कर्ष के तौर पर देखने लगे तो चैनल के लिए बड़ा ही फजीहत वाला मामला है। फिल्म के निष्कर्ष को रियल लाइफ से जोड़कर देखना बहुत मुश्किल काम नहीं है। ये जानते हुए कि फिल्म फिल्म हौ औऱ जिंदगी जिंदगी, तोभी बस एक लाइन ही इस्तेमाल करना होता है- अजी, बिना समाज में कुछ घटित हुए थोड़े ही फिल्म बनती है। वो भी तब जब मधुर भंडारकर रीयल सिचुएशन पर पेथ थ्री, कॉरपोरेट, फैशन जैसी फिल्में बनाते हैं। राम गोपाल वर्मा होटल ताज औऱ नरीमन हाउस के परखच्चे उड़ी दीवारों और फर्नीचर को देखने जाते हैं।

तो इसका मतलब क्या निकाला जाए कि सिनेमा के भीतर के टेलीविजन और चैनल को देखकर देश की ऑडिएंस ( भले ही ये संख्या बहुत छोटी हो) ये मानती है कि टेलीविजन और चैनल, समाज के विरोधी ताकतों से लड़नेवाले लोगों को मुसीबत में ड़ाल देती है, अपनी टीआरपी की खातिर, ब्रांड इमेज की खातिर। फिल्म में ही सही लेकिन ऐसे ही अपनी स्टोरी चमकाने के लिए रिपोर्टर ने कृष की जान मुसीबत में डाल दी थी।

2 comments:

  1. bahut bahut swagat hae dost. aur mubarqbaad
    irshad

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  2. अच्‍छी लगी गजनी की नई छोर से समीक्षा।
    नए ब्‍लॉग के लि‍ए आपको शुभकामनाऍं।

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