करीब डेढ़ साल तक भारी मशक्कत के बाद मैंने करीब ६०० घंटे की रिकार्डिंग पूरी कर ली। ये रिकार्डिंग मनोरंजन प्रधान चैनलों पर दिखाए जानेवाले कार्यक्रमों की है। जिसमें टीवी सीरियलों से लेकर रियलिटी शो, विज्ञापन,स्टंट औऱ झगड़े-झंझट और स्ट्रैटजी शामिल हैं। इसकी रिकार्डिंग मैंने अपनी पीएच।डी की जरुरतों के हिसाब से की है। इसलिए पूरे टॉपिक के हिसाब से २००७-२००८ में मनोरंजन चैनलों पर प्राइम टाइम में प्रसारित होनेवाले कार्यक्रमों को शामिल किया है।
मुझे विश्लेषण सिर्फ प्राइम टाइम के कार्यक्रमों की करनी है। लेकिन अब तक दूरदर्शन के हिसाब से प्राइम टाइम का जो समय रहा है उसे मैंने थोड़ा और आगे तक खींचा है। क्योंकि कई ऐसे कार्यक्रम हैं जो कि रात के दस बजे के बाद आते हैं लेकिन ऑडिएंस इफेक्ट के मामले में ये आठ बजे के कार्यक्रमों पर भारी पड़ते हैं। इस दौरान मैंने न्यूज चैनलो से ज्यादा मनोरंजन चैनलों को देखा है। न्यूज चैनलों को देखा भी तो ये जानने-समझने के लिए कि वो मनोरंजन से जुड़ी खबरों को किस रुप में प्रसारित करते हैं।
आपमें से कई लोग न्यूज चैनलों पर इस बात से नाराज हो सकते हैं कि वो प्राइम टाइम में हंसगुल्ले, कॉमेडी सर्कस का भौंडापन औऱ रियलिटी शो की चिक-चिक दिखाते हैं,सब वकवास है। लेकिन मैंने इस बात को समझने की कोशिश की है कि मनोरंजन चैनलों से जुड़ी खबरों को जब न्यूज चैनल प्रसारित करते हैं तो टेलीविजन का एक नया संस्करण उभरकर सामने आता है। दोनों में आपको एक हद तक समानता भी देखने को मिल जाएंगे। उसकी स्ट्रैटजी में एक हद तक समानता भी दिखेगी। इसलिए मेरी कोशिश है कि जब मैं मनोरंजन चैनलों की भाषिक एवं सांस्कृतिक निर्मितियों पर बात कर रहा हूं तो इसे टेलीविजन से ऑपरेशनलाइज करते हुए,सिर्फ मनोरंजन चैनलों पर बात करने के बजाए ओवर ऑल टेलीविजन संस्कृति पर बात करुं। टेलीविजन किस तरह से एक स्वतंत्र संस्कृति गढ़ रहा है जो कि आगे सजाकर समाज से पैदा न होते हुए भी सोशल प्रैक्टिस के रुप में स्वीकार कर लिया जाएगा, इसे समझना जरुरी है। हालांकि ये हमारे रिसर्च का एक छोटा-सा हिस्सा होगा लेकिन इसे ट्रेस करना जरुरी है कि अब जब लोग टेलीविजन पर अपनी राय देते और बनाते हैं तो उनके दिमाग में मनोरंजन चैनल और न्यूज चैनल को लेकर क्या तस्वीर बनती है।
यही सबकुछ जानने की कोशिश में मैंने अपने ब्लॉग के कोने में टेलीविजन का देश भारत नाम से एक छोटी-सी नोट डाल रखी है। इस नोट का एक हिस्सा है-
गांवों का देश,गरीबों का देश,किसानों का देश,अंधविश्वास और पाखंडों का देश,भावनाओं का देश नाम से हिन्दुस्तान और यहां के लोगों बारे में काफी कुछ लिखा गया। मेरी कोशिश है कि अब इस देश को टेलीविजन का देश के रुप में देखा जाए,ये जानने की कोशिश की जाए कि देश के लोग टेलीविजन को किस रुप में लेते हैं, किस रुप में प्रभावित होते हैं। 2009 में देश के अलग-अलग हिस्सों में करीब एक हजार लोगों से इस संबंध में बात करना चाहता हूं। आपके सहयोग से ये संख्या बढ़ सकती है। मेल के जरिए आप हमें जितनी अधिक राय देंगे,हमें उन लोगों से बात करने के लिए ज्यादा वक्त मिलेगा जो नेट पर नहीं आते,टीवी देखते हैं और सीधे सो जाते हैं, टीवी पर बात भी की जा सकती है, ऐसा नहीं सोचते।एक बड़ी सच्चाई के साथ मैं इस रिसर्च को आगे बढ़ना चाहता हूं कि आप चाहें या न चाहें, आप माने या न माने टेलीविजन का हमारी जिंदगी पर गहरा असर है।
जब मैं तीन साल की किलकारी को कार्टून नेटवर्क के बजाय बिग बॉस के लिए मचलता देखता हूं, चार साल की खुशी के सवाल से टकराता हूं कि चाचू काकुल का अफेयर टूट जाएगा क्या, ७६ साल की अपने एक टीचर की अम्मा की बात सुनता हूं कि- बढ़िया है न बेटा, इधर-उधर की लाय-चुगली से तो अच्छा है कि आदमी अपने घर में बैठकर टीवी ही देख ले।
कई घरों में गया हूं, बच्चों की मम्मियां बात को टालने के लिए, उसकी जिद से पिंड छुडाने के लिए टीवी के आगे पटक देती है। कई घरों में टीवी आया,चाइल्ड अटेंडर के तौर पर इस्तेमाल में लाए जाते हैं। ये देश की वो ऑडिएंस है जिनके आगे हमारी इन्टलेक्चुअलिटी मार खा जाती है।इसलिए अब जरुरी है कि टेलीविजन से बननेवाले इस समाज पर बहस की जाए, एक नया विमर्श शुरु हो और ज्यादा से ज्यादा लोग इसमें शामिल हो।
२००९ में मैं पूरे साल तक देश के अलग-अलग हिस्सों की ऑडिएंस से बात करना चाहता हूं, मिलना चाहता हूं। शहर से लेकर दूरदराज तक के लोगों से। उनके साथ बैठकर टीवी देखना चाहता हूं,बेतहाशा रिमोट पर दौड़ती उनकी उंगलियों का तर्क समझना चाहता हूं।
बहुत अच्छे जी। हमारी शुभकामनाएं।
ReplyDeleteDear vineet,
ReplyDeleteI would love to read your blog, and post comments. Your writing invokes many ideas.
regards,
Yunus
badiaa....mai taiyaar hoon dost
ReplyDeleteविनीत भाई ,
ReplyDeleteआपके अभियान में हम लोग आपके साथ है .
आपकी ये जानने की कोशिश... कि देश के लोग टेलीविजन को किस रुप में लेते हैं, किस रुप में प्रभावित होते हैं।
वाकई तारीफ के काबिल है .
मैं अपनी और से आपका पूरा सहयोग करूँगा. एक समय मैं रेडियो का दीवाना हुआ करता था . रेडियो को लेकर मैं काफी कुछ सोचा करता था . मुझे भी यहीं लगता है . रेडियो और टीवी तमाम लोगों को प्रभावित करते हैं.
सो बेस्ट ऑफ़ लुक्क
रामकृष्ण डोंगरे
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