Saturday 21 March 2009
टेलीविजन के लिए संजय दत्त सिर्फ मुन्नाभाई है, बस
आपकी अदालत( रात दस बजे 21 मार्च,इंडिया टीवी) में रजत शर्मा ने संजय दत्त से सवाल किया कि क्या आपने भाषण तैयार कर लिया है। लखनउ के लोगों से आप क्या बोलेंगे। संजय दत्त का सीधा-सा जबाब था- बोलूंगा एक जादू की झप्पी दे दो। आठ-नौ साल की एक लड़की ने(अपने मां-बाप के उकसाने और ब्रीफ किए जाने पर)ने अपनी इच्छा जाहिर की- जिस तरह से आपने लगे रहो मुन्नाभाई में कहा- गुडमार्निंग मुंबई,उसी तरह से एक बार गुडमार्निग लखनऊ बोलिए न। संजय दत्त ने कहा- अभी बोलूं। लड़की ने कहा हां- लखनऊ के जो लोग आपको देख रहे हैं वो ऐसा करने से आपको ही वोट देंगे। संयय दत्त ने ऐसा ही किया। पूरे शो में रजत शर्मा ये दुहराते नजर आए- मुन्नाभाई पर आरोप है कि,मुन्नाभाई के बारे में कहा जाता है कि...। कल के शो में इंडिया टीवी ने संजय दत्त की जो इमेज बनायी उसमें मुन्नाभाई फैक्टर हावी रहा।
मुन्नाभाई एमबीबीएस और लगे रहो मुन्नाभाई, इन दो फिल्मों के बनाए जाने के बाद संजय दत्त की पर्सनल इमेज मुन्नाभाई के आगे सप्रेस होती नजर आती है. टेलीविजन पर जैसे ही संजय दत्त से जुड़ी खबर आती है कि एंकर,प्रोड्यूसर द्वारा उस पर मुन्नाभाई की लेप चढ़ानी शुरु हो जाती है। इस लेप से संजय दत्त को काफी हद तक राहत ही मिलती है। ऑडिएंस उन मामलों की तरफ फोकस नहीं हो पाता जिसकी वजह से वो कचहरी औऱ जेल आने-जाने के झमेले में पड़ते रहे हैं। टेलीविजन पर कोई भी खबर हो अगर उसमें संजय दत्त कॉन्टेक्सट्स है तो वहां मुन्नाभाई है। संजय दत्त की जगह का अधिक से अधिक स्पेस मुन्नाभाई घेर लेता है। वो चाहे गाने के तौर पर हो, संबोधन के तौर पर हो, स्क्रिप्ट के तौर पर हो या फिर जबाब-सवाल के तौर पर हो। लेकिन सच ये है कि संजय दत्त से जुड़े सवाल, उसके पर्सनल एफर्ट और एप्रोच ऑडिएंस के सामने नहीं आने पाते।
टेलीविजन पर संजय दत्त से जुड़ी खबरों को देखकर आप ये सवाल कर सकते हैं कि क्या मुन्नाभाई से पहले संजय दत्त का कोई इतिहास नहीं है,कोई ऐसी फिल्म नहीं है जिसकी चर्चा की जाए, कोई ऐसे गाने नहीं है जिसे बैग्ग्राउंड के तौर पर इस्तेमाल किए जा सकते हैं। सबकुछ मु्न्नाभाई से ही क्यों शुरु होता है। चाहे वो संजय दत्त के जेल जाने का मामला हो या फिर समाजवादी पार्टी में शामिल होने का। ये एक जरुरी सवाल है कि अगर संजय दत्त को मुन्नाभाई से अलग करके दिखाना हो ते टेलीविजन के पास उसे दिखाने के लिए क्या कुछ है। ऐसा दिखाया जाना मुन्नाभआई की पॉपुलरिटी को भुनाना है,ये बात कोई भी आम ऑडिएंस समझ सकती है लेकिन कल को अगर बात-बात में मुन्नाभाई देख-सुनकर बोर होने लगे तब ये मामला सिर्फ टेस्ट का नहीं रह जाएगा।
अभी तो बड़ी आसानी से टेलीविजन,रजत शर्मा और खुद सजय दत्त बात-बात में जादू की झप्पी लेते-देते नजर आते हैं,देखे और दिखाए जाते हैं क्योंकि मौजूदा हालात में तीनों को इससे फायदा है। चुनाव को देखते हुए टेलीविजन को अपने रंग,तेवर और अंदाज बदलने हैं। सालों भर सॉफ्ट स्टोरी में तर रहे टेलीविजन पर जब ज्यादा से ज्यादा पॉलिटिकल न्यूज आने लग जाएं तो टेलीविजन की सेल्फ क्रिएटिविटी भंग होने लगती है। ऐसे में उसके लिए जरुरी होता है कि वो नेताओं के उटपटांग बयानों को,रैलियों में नेताओं के करतबों को,नेताओं के झमेलों और जूते फेंकनेवाले,चेहरे पोतनेवाले जज्बाती ऑडिएंस की तलाश जारी रखे। वो टेलीविजन में मसखरईपने को बचाए रखने की कोशिश करे। इस लिहाज से बात-बात में जादू की झप्पी, जय हो जैसे कूट शब्दों का प्रयोग करनेवाले को अपने भीतर शामिल करे, जिन शब्दों का कोई निश्चित अर्थ न हो लेकिन झमेला पैदा करने की भी स्थिति न बने, ऑडिएंस को मजा आए। रजत शर्मा को तत्काल फायदा है कि वो लम्बे समय बाद नए एपिसोड लेकर उतरे हैं, कल ही ब्लॉग पर एक टिप्पणीकार ने लिखा कि आपकी अदालत के पुराने एपिसोड देखकर उबकाई आती है, वो अब नए सिरे से जुड़ें. मुन्नाभाई की ऑडिएंस आपकी अदालत की तरफ शिफ्ट हो औऱ दुकान फिर से जम जाए। संजय दत्त को सीधा फायदा है कि वो ऐसे कार्यक्रमों के जरिए अखबार,मैगजीन,रिपोर्टों और सरकारी फैसले के असर को कम करते हुए ऑडिएंस के बीच जो कि अब एक हद तक वोटर भी होने जा रहे हैं,इमोशनल सपोर्ट हासिल कर सके। उससे सारे सवाल अगर मुन्नाभाई की हैसियत से न कि संजय दत्त की हैसियत से पूछे जाते हैं तो इसमें उसका फायदा ही फायदा है, वो जिस रुप में चाहे जबाब दे सकता है, कैजुअली।
लेकिन लम्बे समय में अगर ऑडिएंस औऱ संजय दत्त के रिश्ते को समझें तो भारी नुकसान है। संजय दत्त की पहचान मुन्नाभाई से शुरु होने और उसी के कलेवर में आगे बनते जाने से संजय दत्त का इतिहास, उसके संघर्ष, उसकी वास्तविकता, ऑडिएंस की नजरों से धीरे-धीरे ओझल होते जाने की बड़ी संभावना है। एक अभिनेता की हैसियत से देखें तो संजय दत्त की पहचान सिर्फ मुन्नाभाई नहीं है, उसे एक बेहतर एक्टर सिर्फ इसी ने नहीं बनाया है, उसके पीछे की खलनायक जैसी दर्जनों फिल्में हैं जिसके किसी भी स्क्रिप्ट की चर्चा और इस्तेमाल खबरों के पैकेज में नहीं होते। ये संजय दत्त के अभिनेता कद को कितना बौना बना देता है, ये बात फिलहाल नेता बनने की छटपटाहट में संजय दत्त को शायद समझ नहीं आ रहा। लेकिन टेलीविजन की ताकत के आगे संजय दत्त माने मुन्नाभाई,उसे संजय दत्त का पासंग भर बनाकर रख देता है। संभवतः इसलिए सवाल जबाब के क्रम में एनडीटीवी पर उमाशंकर सिंह जब क्रिकेटर मदनलाल को कांग्रेस में आने को बार-बार पॉलिटिक्स में आना शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो वो झल्ला जाते हैं। मदनलाल साफ कहते हैं- आप इसे पॉलिटिक्स में आना क्यों कहते हैं,ये समाज सेवा है। मैं देश के लिए भले ही क्रिकेट खेलता रहा लेकिन मेरे भीतर समाज सेवा की इच्छा बनी रही.मदनलाल अपने को समाज सेवी के तौर पर स्थापित करने की कोशिश में लगे रहे जबकि उमाशंकर ने पीटीसी और सवालों में राजनीति के पिच और क्रिकेट के पिच के बीच ही मदनलाल को रखा। ये बताने के लिए मदनलाल या तो खिलाड़ी हैं या तो पॉलिटिसियन हो सकते हैं, समाजसेवी.......।
आप लाख कोशिशें कर लीजिए, आप लाख हाथ-पैर मार लीजिए, टेलीविजन आपकी एक छवि तैयार करता है, ये छवि आपके मुताबिक होने के बजाय टेलीविजन के मुताबिक होता है जिसे ऑडिएंस को नए सिरे से समझना होता है, बनाए गए लोगों की छवि को तोड़ना या फिर जस्टिफाई करना होता है, ओवरटेक करना होता है। लेकिन कोई ये कह दे कि हमारी छवि को समझना टेलीविजन के बूते की बात नहीं है तो वो पाखंड रच रहा है,वह अपनी ताकत टेलीविजन के इस खेल को समझने में ही लगाए तो बेहतर है।..
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बहुत अच्छा लिखा है।
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