Tuesday 7 April 2009

जर्नलिस्ट को एक्टिविस्ट नहीं होना चाहिए- जरनैल सिंह


IBN7 के खास कार्यक्रम डंके की चोट पर में आशुतोष ने जरनैल सिंह से सवाल किया कि- जरनैल,क्या एक जर्नलिस्ट को एक्टिविस्ट होना चाहिए? जिस तरह से आपने काम किया,क्या आपको लगता है कि ये आपको शोभा देता है?(9:23PM)7 अप्रैल 09
जरनैल सिंह ने आशुतोष के इस सवाल का जबाब देते हुए कहा- मैं वहां पर ऐज ए जर्नलिस्ट था तो मुझे ऐज ए जर्नलिस्ट ही बर्ताव करना चाहिए था जब मैं प्रेस कॉन्फेंस में हूं। अगर आप एक्टिविस्ट बनना चाहते हैं तो उसके लिए अलग से फील्ड है,आप बन सकते हैं। देखिए मेरा मानना है कि जर्नलिस्ट को जर्नलिस्ट ही रहना चाहिए। और ऐज ए जर्नलिस्ट आइ रिग्रेट वॉट आइ डिड। वो मुझे अपसोस है कि ऐज ए जर्नलिस्ट वहां हुआ। इससे दिक्कतें बढ़ेगी,पत्रकार दोस्तों की दिक्कतें बढ़ेंगी जो कि ठीक नहीं है।

कल,देश के गृहमंत्री पी.चिदंबरम के उपर,दैनिक जागरण के वरिष्ठ पत्रकार जरनैल सिंह द्वारा जूते फेंके जाने के बाद जिस तरह की राजनीति गर्मायी और चैनलों ने बाकी की खबरों को धकेलते हुए इसे प्राइम तक पहुंचाया,फिलहाल हम उस बहस में नहीं पड़ना चाहते। हमारी दिल्चस्पी बगदाद से लेकर दिल्ली तक जूते फेंके जाने की घटना को एक ऐतिहासिकता तौर पर बन रही परंपरा साबित करना भी नहीं है। यहां हम इस घटना और खासकर इस सवाल-जबाब के जरिए पत्रकार,एक्टिविस्ट और न्यूज चैनलों के जरिए बननेवाली इमेज पर बात करना चाहेंगे।
चैनलों द्वारा जरनैल सिंह का नाम बार-बार एक हिन्दी पत्रकार के रुप में उछाया गया। उसके साथ बार-बार हिन्दी शब्द जोड़ा गया। उसके बाद अखबार का नाम लिया गया। आइबीएन7 ने जरनैल सिंह को लेकर, दैनिक जागरण की ओर से जारी बयान को भी उसके लेटर पैड के साथ दिखाया। कैमरे पर खुद जरनैल सिंह के दैनिक जागरण का पत्रकार बोले जाने के बाद चैनलों ने इसे अखबार के नाम के साथ जोड़कर दिखाना शुरु किया। मुझे इस बात पर जरा-सी भी आपत्ति नहीं है कि अखबार का नाम क्यों लिया गया। लेकिन अखबार के नाम के साथ पूरी इस घटना को दिखाए जाने के पीछे मेरी जो समझ बनती है वो ये कि- क्या ऐसा इसलिए तो नहीं कि चैनल के पत्रकारों ने प्रिंट की पत्रकारिता और चैनल के बीच एक विभाजन रेखा खींच ली है। मतलब ये कि इस खबर को दिखाए जाने के तरीके के आधार पर ये साबित होता है कि प्रिंट औऱ इलेक्ट्रॉनिक को लेकर पक्षधरता का विभाजन साफ है। इस पर विचार करना इसलिए भी जरुरी है कि दो औऱ घटनाओं पर अगर आप गौर करें तो कुछ ऐसी ही समझ बनती है।
लाइव इंडिया के रिपोर्टर प्रकाश सिंह द्वारा उमा खुराना को लेकर एक ऐसी खबर दिखायी गयी और चैनलों द्वारा इस तरह से पेश किया गया कि तुर्कमान गेट के पास धीरे-धीरे दंगे का महौल बन गया। दिनभर तक चलायी जानेवाली खबर पर लोगों की उग्र प्रतिक्रिया हुई। बाद में इस खबर के पीछे का कच्चापन,रातोंरात मीडिया में चमकने की छटपटाहट और छिछोरेपन का मामला सामने आया। तब तक किसी भी चैनल ने इस चैनल का नाम नहीं लिया,इसे उछालने का काम नहीं किया।
दूसरी खबर,सौम्या विश्वनाथन की हत्या के संदर्भ में। सौम्या विश्वनाथन जिस चैनल से जुड़ी थी उस चैनल ने घटना के बारह घंटे बाद तक इस खबर पर अपनी कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की। बाकी चैनलों से बहुत बाद में उसने खबर दिखाया,ये अलग बात है कि उस चैनल की आत्मा सबसे तेज कहलाकर ही तृप्त होती है। बाद में इस खबर को विस्तार से दिखाया गया और व्ऑयस ऑफ इंडिया ने इसे बतौर पैकेज बनाकर दिखाया।

जब आप चैनल के लिए स्टोरी लिख रहे होते हैं तो आपको बार-बार बताया जाता है कि आप किसी चैनल का नाम नहीं लेंगे। शायद ये मीडिया एथिक्स का हिस्सा हो। लेकिन वहां पर ये भी देखना होता है कि किस तरह की खबर है। आप कल की घटना सहित बाकी तीनों खबरों को दिखाए जाने पर गौर करें तो आप इस बात से इत्तेफाक रखेंगे कि चैनल किसी दूसरे मीडिया संस्थान का नाम या फिर अपने ही संस्थान का नाम तब तक नहीं लेता, जब तक कि कानून की पेंच में खुद उसके पड़ जाने की थोड़ी भी गुंजाइश बची रहती है। जब ये साफ हो जाता है कि- किसी भी खबर को लेकर मीडिया संस्थान की कहीं कोई भूमिका नहीं है या अगर है भी तो उसे ब्लर्र किया जा सकता है, तब संस्थान का नाम लिया जाता है। ऐसे में,खबर करने औऱ झमेले में फंसने की स्थिति में पत्रकार बिल्कुल अलग-थलग पड़ जाता है। वह मामूली इंसान हो जाता है और उसी तरह की मानसिक परेशानी झेलता है। संस्थान को उससे पल्ला झाड़ने में एक मिनट का भी समय नहीं लगता। मैं इस बहस में बिल्कुल नहीं पड़ना चाहता कि गलती किसकी है। चैनल को नंबर बनाने की होड़ में प्रकाश सिंह की या संस्थान की। इधर प्रेस कांफ्रेंस में जूते फेंकनेवाले करनैल सिंह की। लेकिन टीआरपी बटोरने की ललक क्या सिर्फ एक पत्रकार की ही होती है जो वो स्टोरी कर रहा है या फिर संस्थान अपने भीतर लगातार उस मानसिकता को प्रोत्साहित करता है जिससे कि ऐसी हरकतें सामने आती है। जूते फेकने से पहले,सवाल पूछ-पूछकर किसके लिए बाइट जुटा रहा था,किसके लिए खास-खबर बनाने की जद्दाजहद में था,जिस सवाल से चिदंबरम बचना चाह रहे थे,किसके लिए वो उसके जबाब मांग रहा था। लेकिन, करनैल सिंह के मामले में चैनल ने अखबार की ओर से स्थिति स्पष्ट करते हुए सवाल किया कि- करनैल सिंह को अखबार की ओर से पी.चिदंबरम के प्रेस कांफ्रेस के लिए नहीं भेजा गया था,वो अपनी मर्जी से वहां चले गए थे। जाहिर है,करनैल सिंह को ऐसा नहीं करना चाहिए था। क्या देश के एक बड़े अखबार का प्रबंधन इतना बदहोश है कि उसे पता तक नहीं कि किसे किस काम के लिए भेजा जाना है औऱ अगर अपनी मर्जी से कोई भी कहीं चला जाता है तो बर्बर वर्किंग कल्चर को कैसे रोका जाए। लाइव इंडिया के मामले में चैनल हेड ने कुछ ऐसे ही बयान दिए थे। और तो और.. इस सवाल को खड़ी करके चैनल कुछ दूसरी ही बात साबित करना चाह रहा था। कहीं किसी योजनाबद्ध तरीके से जरनैल सिंह ने ऐसा तो नहीं किया। उसकी मां और पत्नी की बाइट ली गयी। मेनस्ट्रीम की मीडिया में जरनैल सिंह के गुस्से को एक सिक्ख के गुस्से के तौर पर स्थापित किया गया न कि एक पत्रकार के गुस्स को। अब जो राजनीति हो रही है उसमें मीडिया अपनी भूमिका को लेकर चुप है, सिरे से गायब है। उसने एक लाइन भी नहीं लिखा-कहा कि देश में न्याय-प्रक्रिया का जो आलम है औऱ लोगों की जिंदगी के बरक्स राजनीति हावी है, ऐसे में किसी भी पत्रकार को गुस्सा आना मामूली बात है। मैं ये बिल्कुल नहीं कह रहा कि ऐसा करके करनैल सिंह का पक्ष लिया जाना चाहिए और उसने जो कुछ भी किया है उसे जायज ठहराया जाना चाहिए लेकिन एक पत्रकार के गुस्से को एक समुदाय के गुस्से के रुप में स्थापित करने के पीछे मीडिया को खुद सवाल करने चाहिए कि क्या देश के किसी भा हालत को देखकर उसके भीतर उबाल नहीं आते,उसे बेचैनी नहीं होती। खबरों का रंग बदलकर मीडिया,देश के भीतर कौन से लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाना चाहती है। करनैल सिंह के जूते फेंकने को हटा दें तो अगर इस उबाल को,इस गुस्से को व्यवस्थित किया जाए तो एक सही पत्रकारिता की तस्वीर हमारे सामने होगी लेकिन नजारा देखिए-
आशुतोष ने सवाल में पत्रकार के साथ एक्टिविस्ट शब्द का इस्तेमाल किया। जिस संदर्भ में उसने इस शब्द का प्रयोग किया उससे एक्टिविस्ट शब्द का अर्थ निकलता है कि- एक्टिविस्ट यानी गुस्से में कुछ भी कर जानेवाले लोग,होश-हवाश खोकर अपनी बात रखनेवाले लोग। संभवतः इसलिए जरनैल सिंह ने इस संदर्भ के मुताबिक अर्थ दिया कि- नहीं पत्रकार को एक्टिविस्ट नहीं होना चाहिए। क्या आशुतोष ने एक्टिविस्ट शब्द का प्रयोग सही संदर्भ में किया, ये एक जरुरी सवाल है। आशुतोष को एक्टिविस्ट की निगेटिव छवि बनाने के पहले सोचना चाहिए भी या नहीं। और

क्या जर्नलिज्म,साहित्य या फिर प्रतिरोध से जुड़े जितने भी प्रोफेशन है उनमें एक्टिविज्म का सेंस पैदा किए वगैर,एक्टिविज्म एप्रोच लिए बिना बदलाव के पक्ष में काम करना संभव है। आज क्यों किसी अखबार के पूरे के पूरे पेज छापे जाने पर भी कोई खास असर नहीं होता, आज क्यों चैनल द्वारा किसी भी खबर को लेकर घंटों चलाए जाने के बाद भी कुछ फर्क नहीं पड़ता। क्यों शब्दों ने अपनी ताकत खो दी है, किसी के विरोध में लिखे जाने पर भी वो छोटे-छोटे कंकड भर का काम करके निकल जाते हैं जिसे कि भ्रष्ट नेता या अधिकारी सहलाकर निश्चिंत हो जाते हैं। पत्रकारों द्वारा लिखे-कहे शब्द अगर उसकी रगों में नहीं दौड़ते,तब बदलाव की गुंजाइश ही कहां बचती है। ऐसे मौके पर पत्रकार के भीतर के उबाल पर,देश की लचर व्यवस्था पर औऱ एक्टिविज्म पर बात होनी चाहिए थी लेकिन सही समय में गलत संदर्भ के बीच आशुतोष ने एक्टिविज्म शब्द का इस्तेमाल करते हुए,जरनैल सिंह ने इससे इत्तेफाक नहीं रखते हुए उस भरोसे को पनपने नहीं दिया। जिसके बीच से पत्रकारिता और सक्रियता के बीच एक पर्याय बन सकता है,उसे दबा दिया, क्या ये पत्रकारिता के बीच सही संदर्भों की भ्रूण हत्या तो नहीं या फिर दूकान में बैठकर करनेवाली,सॉरी चलानेवीली पत्रकारिता का व्यावहारिक एप्रोच है।

7 comments:

  1. बहुत सटीक पोस्ट लिखी है।

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  2. सुंदर.. बढिया, उत्तम आलेख विनीत भाई , लेकिन जिस चैनस से मैं वास्ता रखता हूं, वहां ऐसे गुस्से के लिए कोई जगह नहीं है। हमारे चैनल ने इस खबर को नोटिस नहीं किया। इसे खबर मानने को कौई तैयार नहीं। मैं चाहता था कि हमारे ९ बजे के बुलेटिन में इस पर चर्चा हो, कि आखिर इराक से लेकर अपने यहां तक पत्रकार जूतमपैजार पर क्यों उताऱू हो गए हैं। बहरहाल , हमारा चैनल नपंसकता की हद तक शालीन है और इस खबर पर डंडा चल सकने की बाबत चर्चा तो खैर नहीं ही हुई।

    तो मेरा मानना है कि एक सिख के तौर पर जरनैल के गुस्से को उकेर कर चैनल वाले और बाकी की प्रिंट मीडिया भी गलत कर रही है। उनका गुस्सा उस बिरादरी का गुस्सा है जो पत्रकार की तरह ्पने विचार वय्क्त करने का ्पना आधार खो चुकी है और बाईट कलेक्टर बनकर रह गई है।

    हमारे संस्थान के संवाददाता तो खैर नख-दंत विहीन हैं ही।
    सादर

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  3. अच्छे सवालों को उठाती एक बेहतरीन पोस्ट।

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  4. सटीक मुद्दे पर सटीक लेखन।

    आशुतोष के नज़रिए को सही पकड़ा आपने। लेकिन इसके जवाब में जरनैल सिंह ने जो जवाब दिया उससे सहमत हूं।

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  5. कल विभिन्न ब्लॉग्स पर किये गये मेरे कमेंट कि "यदि यही जूता किसी मुस्लिम पत्रकार ने नरेन्द्र मोदी पर चलाया होता… तो इन ढोंगी, पाखण्डी, सेकुलर चैनलों का रवैया क्या यही होता जो आज है?" क्या जितनी पत्रकारिता की नैतिकता बघारी जा रही है, तब भी वैसी ही बघारी जाती? नहीं… अखबारों और चैनलों के पक्षपाती इतिहास को दे्खते हुए कहा जा सकता है कि यदि ऐसा होता, तो पन्ने के पन्ने रंग दिये जाते, चैनलों पर खास कार्यक्रम 4-4 दिन तक आयोजित किये जाते, अरुंधती, सीतलवाड और महेश भट्ट जैसों से मुलाकात करवाई जाती… कुल मिलाकर यह कि पाखण्ड छोड़ो…

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  6. जरनैल सिंह ....'करनैल..' नहीं !

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  7. अच्‍दे विश्‍लेषणात्‍मक आलेख के लिए धन्‍यवाद।

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