Sunday 19 April 2009

टीवी अख़बार जैसा लगता है



ये पोस्ट रवीश कुमार के ब्लॉग कस्बा से ली गयी है। टीवी प्लस पर पुनः चढ़ाने के पीछे का लोभ सिर्फ इतना भर है कि ये मेरे और बाकी दूसरे टेलीविजन पर रिसर्च करनेवाले लोगों के सरोकार से जुड़ी है।- विनीत

आजकल सभी न्यूज़ चैनलों के स्क्रीन एक जैसे लगते हैं। हर जानकारी जो पहले बोली जाती थी अब बोले जाने के साथ लिखी हुई आती है। दर्शक को समझाने और उसे आकर्षित करने का जुगाड़ है। कई तरह के शोध से यह बात सामने आने लगी है कि कोई भी दर्शक कभी भी आ जाता है। थोड़ी देर रूकता है, फिर चला जाता है। दर्शकों का व्यवहार टीवी स्क्रीन को बदल रहा है।

टीवी की भाषा में इसे सुपर कहते हैं। जैसे अखबारों में होता है। हेडलाइन के बाद छोटी छोटी सुर्खियों के बाक्स बन जाते हैं। टीवी में भी यही होता है। टीवी नहीं दिखता बाकी सब दिखता ह। अक्षर दृश्य पर हावी हो चुके हैं। अब तो दृश्यों को भी लाल डोरे से घेर और तीर मार मार कर बताते हैं कि पूरे स्क्रीन पर देखने की ज़रूरत नहीं, सिर्फ यही कोना देखो,जहां लाल वाला तीर ज़ोर मार रहा है।

न्यूज़ चैनल, हर दो महीने में खुद को बदल देने की बेचैनी के शिकार हैं। दर्शकों को अंधेरे में ढूंढा जा रहा है। पिछले दिनों कई लोगों से बात की। घरों में जाकर और दुकानदारों और उन लोगों से जो न्यूज़ चैनल देखते हैं। सबने कहा कि वो कभी टाइम से टीवी नहीं देखते। जब जी में आता है चैनल ऑन कर देते हैं। क्यों? जवाब मिला कि पहले शाम सात बजे और रात नौ बजे समाचार आते थे। अब तो हर वक्त आते थे। तो हम किसी खास टाइम पर न्यूज़ क्यों देखें? दर्शक अब सात बजे के हिसाब से समाचार नहीं देखता।

लेकिन पिछले कुछ सालों से विज़ुअल में गिरावट आ रही है। जिसके लिए टीवी अख़बारों से अलग हुआ,अब वही टीवी अख़बार जैसा होने लगा है। कैमरामैन का हुनर गायब होता जा रहा है। उसके विज़ुअल की अहमियत तभी रह गई है जब वो लाठी चार्ज शूट कर रहा हो। विज़ुअल भी अब संपूर्ण नहीं हैं। एक फ्रेम के भीतर कई फ्रेम बना दिये जाते हैं। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। ये सारे गुण और अधिकार से लैसे होती हैं हमारी एडिटिंग मशीन। उनका उपयोग कीजिए और कांट छांट कर फ्रेम के ऊपर फ्रेम चस्पां कर दीजिए। आखिर टीवी भी एक किस्म का फिल्म माध्यम है जहां एडिटिंग काफी महत्वपूर्ण है।

पहले के ज़माने में भी क्लोज़ अप को और क्लोज़ अप कर दिखाया जाता था। लेकिन सारे शाट सिक्वेंस में होते थे। अब सिक्वेंस का व्याकरण खत्म हो चुका है। कहीं का शाट कहीं लगा दिया जाता है। यह बीमारी चौबीसों घंटा खबर दिखाने की मजबूरी का नतीजा है। दर्शक के पास टाइम नहीं है कि वो हर वक्त न्यूज़ देखे। न्यूज़ चैनल के पास यही काम है कि वो हर वक्त न्यूज़ दिखाता रहे और देखने के लिए दर्शक आए। इसीलिए हर विज़ुअल या फ्रेम पर एक शब्द लिखा होता है।

सवाल जायज़ या नाजायज़ का नहीं है। इस बहस में मैं अभी नहीं पड़ना चाहता। लेकिन इतना ज़रूर है कि टीवी जैसा टीवी लगता नहीं। एंकर के पीछे किसी इंद्रजाल कामिक्स का किरदार वॉल पर टिका दिया जाता है। उसके सामने एंकर होता है। सारी दुनिया में यही होता है। बीबीसी और सीएनएन में सुपर और विज़ुअल पर अक्षरों को चस्पां किये जाने का चलन या तो नहीं है या फिर एकदम नीचले पायदान पर है। विज़ुअल के लिए भारतीय न्यूज़ चैनलों से ज़्यादा स्पेस है। एक विज़ुअल आप देख पाते नहीं कि एक ज़ूम ज़ाम करता हुआ स्टिंग आता है। उसके दो शब्द लिखे होते हैं। पीए का जवाब। वो घूमता हुआ आता है और शोर कर चला जाता है। शायद इसलिए कि आप उठ कर जाएं न, और उसका चैनल देखते रहें।

दर्शक की खोज में टीवी ही बदल रहे हैं। बदलना चाहिए। अखबार के पन्ने भी बदलते हैं। बस थोड़ा अजीब लगता है कि कैमरामैन का शाट्स अब लगता ही नहीं है। रिपोर्टर की कलाकारी इन्हीं विज़ुअल के माध्यम से निखरती थी। अब रिपोर्टर भी विज़ुअल के हिसाब से नहीं सोचते। टीवी में रहकर हम सब अख़बार का काम करने लगे हैं। नंबर तो आ जाते हैं लेकिन मज़ा नहीं आता। एक ज़माना था जब अख़बार टीवी जैसा होने लगे। अब टीवी अखबार जैसा होने लगा है।

2 comments:

  1. समाचार भी बन गया एक निश्चित व्यापार।
    जिसमें विज्ञापन मिले वही खबर सरकार।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
    कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  2. एक ज़माना था जब अख़बार टीवी जैसा होने लगे ... अब टीवी अखबार जैसा होने लगा है ... सही खबर पाने के लिए जनता क्‍या करे , समझ नहीं आता ?

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