Wednesday 29 April 2009

टेलीविजन,राजनीतिक विज्ञापन और छवि निर्माण का लोकतंत्र


मूलतः प्रकाशित नया ज्ञानोदय मई 09
सिनेमा के जिस गाने के दम पर पूरी दुनिया का दिल जीता जा सकता है, ऑस्कर जीते जा सकते हैं, तो फिर उसी गाने के बूते देश की जनता का मन और लोकसभा चुनाव क्यों नहीं? अपने चुनावी विज्ञापन के लिए,स्लमडॉग मिलेनियर के गीत ‘जय हो’ की कॉपीराइट खरीदनेवाली राजनीतिक पार्टी की इस समझदारी पर आप चाहें तो हंस सकते हैं, अफसोस जाहिर कर सकते हैं कि मौजूदा राजनीति में लोकतंत्र के सच और मनोरंजन की फंतासी में कोई फर्क नहीं रहने दिया गया है। आप चाहें तो इसके विरोध में विपक्षी दल की पैरॉडी में शामिल हो सकते हैं जहां जय हो के बदले भय हो की बात की जा रही है, जहां चतुर्दिक विकास और जय हो के लोकतंत्र का पर्दाफाश करते हुए भूख,गरीबी,मंदी औऱ आतंकवाद के बीच लथपथ एक लाचार लोकतंत्र दिखाया जा रहा है लेकिन इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि टेलीविजन औऱ राजनीतिक विज्ञापनों के गठजोड़ से लोकतंत्र की राजनीति की जो शक्ल उभरकर सामने आ रही है, वह प्रत्याशी,पार्टी कार्यकर्ता और मतदाता के सीधे हस्तक्षेप से बननेवाले लोकतंत्र से बिल्कुल अलग है। इसे आप चाहें तो वर्चुअल डेमोक्रेसी या फिर पिक्चर ट्यूब से पैदा हुआ लोकतंत्र कह सकते हैं जहां मतदाता के तौर पर हम सबकी सक्रियता का अर्थ इस बात से है कि कि ज्यादा से ज्यादा टेलीविजन देखें,उस पर बननेवाली राजनीतिक पार्टियों और प्रत्याशियों की छवियों को समझें,विज्ञापन के चिन्हों पर गौर करें और इस आधार पर राजनीतिक समझ तैयार करें। पिछले दो-तीन सालों से टेलीविजन की संवादधर्मिता बढ़ी है इसलिए चाहें तो फोनो के माध्यम से सवाल-जबाब कर सकते हैं। ऐसा करते हुए हम वर्चुअल डेमोक्रेसी की गतिविधियों में शामिल होते हैं और इस स्तर पर अपने को सक्रिय मतदाता मानते हैं। सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में सीधे हस्तक्षेप के बजाय माध्यमों के स्तर पर सक्रिय होने की इस स्थिति को आर्मन्ड ने “क्राइसिस ऑफ पब्लिक कल्चर” के रुप में विश्लेषित किया है।( आर्मन्ड मैटेलार्टः1991,पेज न-196, एडवर्टाइजिंग इंटरनेशनलः दि प्राइवेटाइजेशन ऑफ पब्लिक स्पेस,राउट्लेज,11 न्यू फीटर लेन,लंदन EC4P 4EE)।
टेलीविजन की ताकत इस बात में है कि वह हमें बिना किसी धक्का-मुक्की वाले चुनावी रैलियों में शामिल हुए, बिना किसी पार्टी के पक्ष में नारे लगाए ,किसी प्रत्याशी के लिए हाय-हाय किए बिना और चुनावी वायदों पर वाह-वाह किए बिना ही हमें सजग मतदाता औऱ नागरिक होने का अहसास कराता है। यह,एक सुरक्षित औऱ सुविधाजनक मनोदशा में हमें राजनीति से जुड़ने का अवसर मुहैया कराता है। टेलीविजन में इस बात की क्षमता है कि यह “मास वोटर/ऑडिएंस”( अलग-अलग मनस्थिति और विचारधारा के लोग,एक-दूसरे से अपरिचित किन्तु माध्यम के स्तर पर एकजुट होनेवाले लोग) को छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित करने का काम करता है जिससे कि लक्ष्य-मतदाता के रुप में राजनीतिक विज्ञापनों का असर उन पर हो सके। टेलीविजन की यही ताकत राजनीतिक पार्टियों को अपने पक्ष में विज्ञापन करने के लिए उकसाती है औऱ आज नतीजा यह कि देश की अधिकांश राजनीतिक पार्टियां और प्रत्याशी टेलीविजन के माध्यम से लोकतंत्र की राजनीति करना चाहते हैं। यहां आकर टेलीविजन “सरोगेट पार्टी वर्कर” के रुप में काम करने लग जाता है।( रॉबर्ट एग्रनॉफः1977,दि न्यू स्टाइल इन इलेक्शन कैम्पेन्स,दूसरा संस्करण,पेज न-4-6,हॉलब्रुक प्रेस-बॉस्टन)।
दूसरी बात, यह जानते हुए भी कि मनोरंजन के पॉपुलर रुपों,फिल्मी गीतों,संवादों,हस्तियों और छवियों को स्क्रीन पर उतारकर स्वयं टेलीविजन राजनीतिक पार्टियों के पक्ष में हमसे वोट मांगने का जो काम कर रहा है, इसका सरोकार हमारी जमीनी हकीकत औऱ जरुरतों को समझने से नहीं है, राजनीतिक पार्टियां अपने पक्ष में विज्ञापन करके विकास के नाम पर जो कुछ भी दिखा रही हैं उसकी कल्पना हम और आप सिर्फ राम राज्य के मिथक के भीतर ही रहकर सकते हैं, आज विपक्षी दल, विकास को जय हो का लोकतंत्र के रुप में दिखाए जाने से परेशान हैं, इससे ठीक पहले के लोकसभा चुनाव में उसने भी साम्प्रदायिकता, बेरोजगारी और असुरक्षा के उपर इंडिया शाइनिंग का मुलम्मा चढ़ाया था, समाचार चैनल भी जो मतदाता के रुप में हमें सबसे ताकतवर साबित करने में जुटे हैं, इनका मकसद भी टीआरपी के पास आकर ठहर जाएगा, वाबजूद इसके हम टेलीविजन पर यह सब लगातार देख रहे हैं। हमारे पास इन सबों को गैरजरुरी और प्रवंचना साबित करने के कई आधार हैं लेकिन वाबजूद इसके हम टेलीविजन की इन गतिविधियों से घिरे रह जाते हैं और देश की एक बड़ी आबादी इसे ही समझदारी का आधार मानती है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि राजनीति सहित बाकी सामाजिक मसलों पर जब हम विचार करते हैं तब हमारी हैसियत एक नागरिक या मतदाता की होती है जबकि टेलीविजन पर उससे जुड़े विज्ञापनों को देखते हुए हमारी भूमिका एक दर्शक में बदल जाती है। हम दर्शक होने की सुविधा से अपने को मुक्त नहीं कर पाते हैं और एक हद तक हमारी समझ टेलीविजन में शामिल रंगों,आकृतियों,प्रस्तुति और ध्वनियों के आधार पर बननी शुरु होती है और हम इसे बाकी के कार्यक्रमों के रुप में ही देखना शुरु करते हैं। यहां आकर विचारधारा औऱ मुद्दों की जगह पार्टी के चिन्ह ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं। कांग्रेस के विज्ञापन में हाथ( आओ तुम्हें दिखाएं इस हाथ की करामात,आजतकः9.07 बजे रात,21 मार्च और बीजेपी के पहचान है,अभिमान है के विज्ञापन में कमल बार-बार बिजली की तरह चमकता है,इंडिया टीवी,8.14 बजे,29 मार्च। राजनीतिक विज्ञापनों और टेलीविजन का हमारे इस बदले रुप का भरपूर लाभ मिलता है और वे धीरे-धीरे नागरिक जरुरतों और सवालों की शिफ्टिंग, दर्शक की पसंद-नापसंद के रुप में करते चले जाते हैं। राजनीति विज्ञापन छवि निर्माण का काम दर्शक की इसी स्थिति के भीतर करता है। मसलन असल जिंदगी में लालकृष्ण आडवाणी के स्वास्थ्य की स्थिति क्या है,राजनीतिक विज्ञापन को इससे कोई खास मतलब नहीं है. उसे बस कुछ ऐसे विजुअल्स चाहिए जिसमें वे एक स्वस्थ और प्रभावी प्रत्याशी लगें क्योंकि टेलीविजन पर मतदाता/दर्शक हर हाल में अपने भावी प्रधानमंत्री को स्वस्थ, मजबूत और प्रभावी राजनीतिक व्यक्तित्व के रुप में देखना चाहते हैं। राजनीतिक पार्टियों द्वारा विज्ञापन पर करोंड़ों रुपये खर्च करने के पीछे का एक ही उद्देश्य होता है कि वह नागरिक की जरुरतों और दर्शक की पसंद,छवि और वास्तविकता के बीच में घालमेल कर दे ताकि उसे मुद्दों और मतदाता के प्रति जबाबदेही से हटकर छवि आधारित लोकतंत्र की राजनीति करने में सुविधा हो ।
माध्यम और राजनीतिक विज्ञापनों की अनिवार्यता की राजनीति के बीच से मुद्दों के बजाय छवियों को स्थापित करने की वड़ी वजह यही है कि राजनीति पार्टियां देश के मतदाताओं का दिल पहले दर्शक के स्तर पर जीतना चाहती हैं उसके बाद इसकी डिकोडिंग मतदाता के रुप में करना चाहती है। इस संदर्भ में रिचर्ड किरवी की मान्यता को समझना जरुरी है। किरवी,चुनाव में मुद्दों के नहीं होने को समस्या के बजाय एक बदलाव की स्थिति मानते हैं। उनके अनुसार अब किसी भी चुनाव में मुद्दे के मुकाबले- प्रत्याशी, नेता और राजनीतिक पार्टी का मूल्य ज्यादा है। इसलिए चुनाव अब मुद्दों के आधार पर की जानवाली राजनीति के बजाय छवि,रणनीति और चाल आधारित प्रतियोगिता है। मतदाता अब मुद्दों से ज्यादा छवि से प्रभावित होते हैं.( विलियम लीज, क्लीन, जैलीः 1990,सोशल कम्युनिकेशन इन एडवर्टाइजिंगः पर्सन,प्रोडक्ट्स एंड इमेज ऑफ वेल विइंग, पेज नं-309,राउट्लेज,11 न्यू फीटर लेन,लंदन EC4P 4EE)। बीजेपी की पंचलाइन- मजबूत नेता,निर्णायक सरकार में कहीं कोई मुद्दा नहीं है। यहां पूरी तरह एक प्रत्याशी की छवि को स्थापित करने की कोशिश है। यानी लोकतंत्र की राजनीति, विज्ञापनों और टेलीविजन की दुनिया में छवि निर्माण और नियंत्रण का खेल है। ऐसा होने से लोकतंत्र की राजनीति के भीतर एक प्रबंधन की शोली तेजी से पनप रही है जिसे कि अब पॉलिटिकल मार्केटिंग के अन्तर्गत विश्लेषित किया जाने लगा है। यहां भी उपभोक्ता व्यवहार के आधार पर सर्वे कराए जाते हैं और फिर रणनीति और विज्ञापन बनाए जाते हैं। उपभोग के लोकतंत्र की तरह यहां भी विज्ञापन के जरिए मतदाताओं को राजनीतिक पार्टी और प्रत्याशी के पक्ष में रिझाने के काम किए जाते हैं।( गैरी माउसरः1988,मार्केटिंग एंड पॉलिटिकल कैम्पेनिंगःस्ट्रैटजी एंड लिमिट्स,पेज नं-2 बेलमांट,बॉड्सवार्थ)।
आगे भी जारी....

1 comment:

  1. एक और अच्‍छे व दमदार विश्‍लेषण के लिए बधाई लें . जल्‍दी से बाक़ी खेप भी पोस्‍ट कर दो बंधु.

    ReplyDelete