Saturday 11 July 2009

कपिल सिब्बल की बात पर,बिफरिए मत कुर्बान अली


आज शाम,पत्रकार स्व.उदयन शर्मा की याद में हुए कार्यक्रम में कपिल सिब्बल की ओर से दिए गए बयान के बाद से पत्रकारों के बीच जबरदस्त बौखलाहट औऱ मलाल है। कुर्बान अली के शब्दों में - आज हमारी हालत ये हो गयी है कपिल सिब्बल आता है और हमारे मुंह पर तमाचा मारते हुए ये कहकर निकल जाता है कि आप कुछ भी छापते रहिए हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। हम शर्मिंदा होने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते।

आज की संगोष्ठी में कपिल सिब्बल और आशुतोष,IBN7 की ओर से अपनी बात रखने के बाद जिस तरह का बवाल मचा उसे देखते,पढ़ते हुए आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आज की मीडिया को लेकर लोगों के बीच किस हद तक की झल्लाहट है। लिहाजा आशुतोष को अपनी बात अधूरी छोड़कर ही वापस बैठ जाना पड़ा। सोचिए ये स्थिति तब है जबकि दर्शक दीर्घा में किसी न किसी रुप में मीडिया से जुड़े लोग मौजूद रहे। यही बात अगर आम टेलीविजन दर्शकों और अखबार के पाठकों के बीच होती तो क्या नौबत होती। यहां आकर नामचीन पत्रकारों को ये खुशफहमी छोड़नी होगी कि वो जहां भी जाएंगें लोग उनसे एक नजर देख लेने भर के लिए आएंगे। मीडिया के स्टूडेंट ऑटोग्राफ के लिए मिलने आएंगे,उनसे उनका इमेल आइडी मांगेगें। सच्चाई ये है कि समाज के बीच तेजी से एक ऐसा वर्ग पनप रहा है जो मीडिया से जुड़े लोगों से हिसाब मांगने के मूड में है,आमने-सामने टकराने की तैयारी में है।

सुनिए सुनिए,मेरी बात भी सुनिए कहता रहा दो-तीन चैनलों का नाम लेते वक्त लोग जिस तरह से दांत पीसते हैं,यकीन मानिए अगर उनसे जुड़े लोग मिल जाएं तो पता नहीं उनके साथ क्या करेंगे। मुझे याद है पिछले साल जब हमने सफर के साथ तीन दिनों का मीडिया वर्कशॉप कराया और टेलीविजन रिपोर्टिंग की वर्कशॉप के लिए सबसे तेज कहे जानेवाले चैनल के पत्रकार को बुलाया तो दिल्ली के अलग-अलग संस्थानों से आए बच्चों ने उनकी बात सुनने के बजाय एक-एक करके इतने सवाल दाग दिए कि वो सिर्फ सुनिए,सुनिए मेरी बात भी तो सुनिए। इसे एक हद तक की बदतमीजी भी कह सकते हैं औऱ बच्चे जो कुछ भी पूछ रहे थे उसे सवाल न कहकर आप भड़ास निकालना कह सकते हैं। अंत में बीच-बचाव करते हुए मुझे कहना पड़ा कि-आपलोगों को इनके साथ इस तरह की बदतमीजी करने का अधिकार नहीं है,ये तो बस चैनल के लिए काम करते हैं, अगर आपको वाकई इन सवालों के जबाब चाहिए तो आप चैनल हेड से समय लीजिए औऱ उनके सामने अपनी बात रखिए. लेकिन इन सब बातों के वाबजूद पल्ला झाड़ते हुए खम ठोककर मीडिया को गरियाने के साथ ही आउटपुट के स्तर पर क्या निकलकर आता है?

विश्वविद्यालय और मीडिया संस्थानों में जो लोग भी मीडिया पढ़ा रहे हैं उन्हें बच्चों की ओर से सवाल दागने का ये अंदाज शायद बहुत पसंद आए। अपनी पढ़ायी गयी चीजों को लेकर सुकून हो कि जो और जिस एप्रोच से उन्होंने बच्चों को पत्रकारिता पढ़ाया,वो ठीक उसी दिशा में बढ़ रहे हैं। वो इत्मिनान कर सकते हैं कि आनेवाले समय में ये बच्चे संतई पत्रकारिता करेंगे औऱ फिर से पत्रकारिता का स्वर्णिम युग आएगा। वर्कशॉप खत्म होने के बाद कुछ टीचरों ने कहा भी कि इन बच्चों के सामने क्या टिकेगें टीवीवाले? आज सही धोया इनको बच्चों ने। सच मानिए इस सीन को देखते हुए मेरे मन में बार-बार एक ही सवाल आया-तो फिर क्यों साल -दो- साल बाद ये बच्चे अपने मीडिया गुरुओं के बारे में कहते फिरते हैं-जिंदगी बर्बाद करते है भइया, मीडिया के नाम पर ऐसा पढ़ाया कि जिसकी इन्डस्ट्री में कोई जरुरत ही नहीं है। सब फालतू औऱ कोरे आदर्श से लदी-फदी बातें।

हर साल देशभर में करीब दो हजार भारतेन्दु औऱ गणेशशंकर विद्यार्थी जैसे लोगों लोगों की पत्रकारिता से प्रभावित होकर पत्रकारिता करने निकले बच्चे क्यों नहीं कुछ बदलाव कर पाते हैं। जाहिर है,संस्थान से बाहर आकर जिन परिस्थितियों औऱ शर्तों पर उन्हें काम करना पड़ता है,वो मीडिया गुरुओं की बातों से मेल नहीं खाती। वो न तो व्यावहारिक ही हुआ करती है औऱ न ही उनमें एप्रोच के स्तर पर समय के साथ-साथ बदलाव आने की गुंजाइश। नतीजा ये होता है कि संस्थान की पत्रकारिता औऱ गुरुओं के पत्रकारिता पाठ उसके लिए दो पाट बनते हैं जिनके बीच की स्थितियों के बीच वो लगातार डूबता-उतरता रहता है। मीडिया कोर्स के दौरान गुरु किसी भी रुप में बाजार, आर्थिक नीतियां औऱ दबाव औऱ विज्ञापन जैसे शब्द को स्टूडेंट के आसपास फटकने ही नहीं देते। अगर आ भी जाए तो उसके लिए पहले से ही बाजारवाद, अपसंस्कृति और उपभोक्तावाद जैसे शब्द पहले से तैयार रखते हैं जो कि उनके हिसाब से पत्रकारिता के अंदर जहर घोलने का काम करते हैं।

दूसरी तरफ पुराने पत्रकार जिन्होंने कि कभी बड़े घरानों से निकलनेवाले अखबारों औऱ पत्र-पत्रिकाओं के लिए कम पैसे में ही सही (उनके हिसाब से) लेकिन इत्मिनान की पत्रकारिता की है,सेमिनारों में उनका सारा जोर सिर्फ इस बात पर होता है कि वो आज के पत्रकारों खासकर टेलीविजन पत्रकारों को फूहड़,गैर-जिम्मेदार और पैसे के पीछे भागनेवाले पत्रकार साबित करने में होता है। अभी करीब पन्द्रह दिन पहले एस.पी.सिंह की याद में हुई संगोष्ठी में बुजुर्ग पत्रकार उमेश जोशी ने कहा कि - "उन्हें आज के पत्रकारों कहने में को पत्रकार कहने में शर्म शर्म आती है । एक-एक पत्रकार पचास लाख औऱ करोड़ रुपये की कोठी खरीद रहा है।" वो पानी पी-पीकर आज के पत्रकारों को गाली देते हैं। लेकिन सवाल ये है कि क्या इस तरह से गरियाने का आधार सिर्फ इसलिए बनता है कि आज का पत्रकार सम्पन्न हो रहा है। हमारे भीतर ऐसा कौन-सा माइंड सेट बन गया है कि हम पत्रकार औऱ साहित्यकार को सम्पन्न होना बर्दाश्त नहीं कर पाते। दूसरी बात कि अगर बुजुर्ग पत्रकारों से मेनस्ट्रीम की पत्रकारिता का नेतृत्व छिनता चला जा रहा है तो इसकी वजह उनका बुजुर्ग होना भर है या फिर बाजार की ताकतों को नहीं समझ पाने की उनकी कमजोरी है। मीडिया संस्थान अगर ये समझ पा रही है कि अगर मीडिया को चलाने के लिए बाजार को शामिल करना अनिवार्य है और उसके मिजाज से यंग जेनरेशन के ही पत्रकार काम लायक हो सकते हैं तो फिर बुजुर्ग पत्रकारों को लेकर कोई क्यों रिस्क उठाए।

दरअसल आज की संगोष्ठी औऱ इसके पहले की भी मीडिया संगोष्ठियों में टेलीविजन पत्रकारों को कोसने की जो रस्म अदायगी होती है,उसके पलटवार में जो टेलीविजन के पत्रकार उत्तेजित होते हैं, वो पुराने जेनरेशन और नए जेनरेशन के बीच की रस्साकशी है। वो पुराने जेनरेशन की ओर से मौजूदा जेनरेशन को नीचा औऱ पतित दिखाने और मौजूदा जेनरेशन की ओर से पुराने पत्रकारों को वस्तुस्थिति की समझ न होने की तोहमत जड़ने का लीला कीर्तन है। ये अपने-अपने स्तर पर खुद को जस्टिफाय करने की कोशिश है। लेकिन इससे भी बड़ा सच है कि आज की पत्रकारिता अगर बाजार के हाथों बिक गयी है,सारे नए पत्रकार उसकी कठपुतलियां बन गए हैं तो ये भी किसी न किसी रुप में बुजुर्ग पत्रकारों की ही हार है। अपनी हठधर्मिता की वजह से पत्रकारिता औऱ बाजार के बीच एक संतुलित संबंध नहीं बनाने का नतीजा है। औऱ फिर कौन जाने,ऐसी कोशिशें उन्होंने की भी होगी औऱ असफल हो जाने की स्थिति में बाकियों के साथ राग-मालकोश का रियाज करने में जुट गए हों।
दरअसल आज की संगोष्ठी औऱ इसके पहले की भी मीडिया संगोष्ठियों में टेलीविजन पत्रकारों को कोसने की जो रस्म अदायगी होती है,उसके पलटवार में जो टेलीविजन के पत्रकार उत्तेजित होते हैं, वो पुराने जेनरेशन और नए जेनरेशन के बीच की रस्साकशी है। वो पुराने जेनरेशन की ओर से मौजूदा जेनरेशन को नीचा औऱ पतित दिखाने और मौजूदा जेनरेशन की ओर से पुराने पत्रकारों को वस्तुस्थिति की समझ न होने की तोहमत जड़ने का लीला कीर्तन है। ये अपने-अपने स्तर पर खुद को जस्टिफाय करने की कोशिश है। लेकिन इससे भी बड़ा सच है कि आज की पत्रकारिता अगर बाजार के हाथों बिक गयी है,सारे नए पत्रकार उसकी कठपुतलियां बन गए हैं तो ये भी किसी न किसी रुप में बुजुर्ग पत्रकारों की ही हार है। अपनी हठधर्मिता की वजह से पत्रकारिता औऱ बाजार के बीच एक संतुलित संबंध नहीं बनाने का नतीजा है। औऱ फिर कौन जाने,ऐसी कोशिशें उन्होंने की भी होगी औऱ असफल हो जाने की स्थिति में बाकियों के साथ राग-मालकोश का रियाज करने में जुट गए हों।

बिकी हुई पत्रकारिता के बीच क्या बुजुर्ग पत्रकार कोई ऐसी मिसाल हमारे सामने रखते हों जिससे कि भारतेन्दु युग की पत्रकारिता की ट्रेनिंग लेकर निकला यूथ सीधे उनसे जुड़े। सिर्फ संपादकीय पन्नों पर लिखते रहने से बदलाव की गुंजाइश नहीं बन पाती। किसी ने किसी जमाने में रिस्क लेकर पत्रकारिता की लेकिन वर्तमान में प्रासंगिक बने रहने के लिए उन्हें नए-नए मिसाल बनाते रहने की जरुरत होती है। आज जरुरत इस बात की है कि बुजुर्ग पत्रकारों की ओऱ से वो सारे मंच तैयार किए जाएं जो बाजार की कठपुतली हुए बगैर पत्रकारिता कर सकें। तब देखिए कितने नए पत्रकार उनके साथ-साथ खड़े हो जाते हैं। लेकिन सच्चाई तो ये है कि सादगी के नाम पर पत्रिका का एक अंक निकाला नहीं कि मध्यप्रदेश और शास्त्री भवन के चक्कर लगाने लग गए।

अब बात रही कपिल सिब्बल के बयान और उस पर कुर्बान अली के बेचैन होने की तो मैं नहीं जानता कि कपिल सिब्बल ने इतना गैरजिम्मेदाराना बयान क्यों दिया? लेकिन दावे के साथ कह सकता हूं कि चाहे कपिल सिब्बल हों या फिर देश के कोई भी दूसरे नेता,उन्हें हमारे लिखे एक-एक शब्द का,बोली गयी एक-एक बात का फर्क पड़ता है। नहीं तो मामूली अखबारों और पत्रिकाओं जिसे कि आम बोलचाल की भाषा में अंडू-झंडू कहते हैं,उनके लोग उनकी कतरनें जुटाते फिरते। लाख कह लीजिए कि बाजार के हाथों मीडिया बिक चुकी है लेकिन लोग उसकी ताकत को अब भी समझते हैं। कपिल सिब्बल अभी हौसले में हैं,कुछ भी बोल सकते हैं लेकिन आप औऱ हम सच को समझते हैं। इसलिए कुर्बान अली जिस अंदाज में इस पर रिएक्ट कर रहे हैं उससे साफ जाहिर होता है कि वो नए जेनरेशन के पत्रकारों पर आरोप लगा रहे हैं कि आपने हमारा नाम डुबा दिया। उन्हें चाहिए कि कपिल सिब्बल की बात पर स्यापा करने के बजाय उनकी पॉलिटिक्स को समझें,ऐसा कहकर पत्रकारों का मनोबल तोड़ने का जो काम उन्होंने किया है,उसे मजबूत करें.

2 comments:

  1. हम पत्रकार औऱ साहित्यकार को सम्पन्न होना बर्दाश्त नहीं कर पाते

    भाईजी, सोच कर लिखी गई पंक्तियां हैं, पर जिनसे जवाब चाहिए असली उन तक आपकी पहुंच नहीं है। बरक्कत से चिढ़नेवालों को हर कोई अपने आप पहचानता है। हर कटु सत्य बोलनेवालों को उस नजरिये से मत देखिये प्रभु। सर्वे का दायरा बढ़ाइये और हो सके तो संवाद भी...जो गुम होता जा रहा है। संवाद के धंधे में संवाद गुम हो रहा है मित्र। भरोसा न हो तो मीडिया संस्थानों में आए दिन किसी गलती के खुलासे पर सफाई स्वरूप'दरअसल मुझे ऐसा लगा, तो मैने ऐसा कर लिया' मार्का कितने वाक्य बोले जाते हैं, उस पर सर्वे कर लीजिए।

    निष्कर्षः लेख अच्छा था, तभी तो यहां आया और टिप्पणी भी कर रहा हूं।

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  2. पहली बात तो इस सच्‍चाई को समझ लेना चाहिए कि आज बाजार मीडिया पर हावी है। आशुतोष की बात में सच्‍चाई तो थी लेकिन उनका और शायद आपका भी निष्‍कर्ष ये निकलता है कि भाई बाजारवाद आज की सच्‍चाई है इससे बचा नहीं जा सकता। मुझे लगता है ये बाजार के आगे घुटने टेक देना है। सही पत्रकारिता का स्‍पेस अगर नहीं बचा है तो बनाना पड़ेगा। जब बाजार नये-नये हथकण्‍डे रोजाना निकाल सकता है मीडिया को पालतू बनाने के तो क्‍या पत्रकार नहीं निकाल सकते। मुझे तो लगता है निकाल सकते हैं बस शर्त ये है कि क्‍या हमारे दिल उन लोगों के लिए धड़कते हैं जो इस देश को चलाने के लिए अपना पसीना बहाते हैं।
    आज श्रीधरन की प्रेस कांफ्रेंस में मैं भी था। कुछ अतिविशिष्‍ट पत्रकार और हाईफाई युवा पत्रकार तो बकायदा रूंआसे हो गये थे उनके इस्‍तीफे की बात सुनकर।

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