Monday 2 November 2009
2 नवबंर 09: टेलीविजन के इतिहास में एक अश्लील दिन
मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive
हमें स्क्रीन पर तीन-चार बुज़ुर्ग टकले, सिर्फ सिर दिखाई देते हैं। एक के ऊपर एक आपाधापी करते हुए मीडियाकर्मी आगे बढ़ते हैं। बादशाह उन्हें बार-बार बैठने की सलाह देता है। कभी मुस्कराते हुए,कभी आवाज़ में थोड़ी तल्खी बरतते हुए लेकिन इन पर कोई असर नहीं होता। उसी धकमपेल में बादशाह की ओर से घोषणा की जाती है – आपलोग परेशान मत होइए, केक काटे जाने के फोटोग्राफ्स आपलोगों के बीच बांट दिये जाएंगे… यू ऑल आर माइ फ्रैंड्स… तू आ न इधर से… तेरे को तो मैंने पहले भी दिया था… हैव कोल्डड्रिंक प्लीज़। बादशाह इन अनुभवी मीडियाकर्मियों को अपना दोस्त बताते हुए शुक्रिया अदा करते हैं। स्क्रीन पर लगातार फ्लैश होता है – शाहरुख़ लाइव। सिलेब्रेटी को कवर करने का दौरा इस तरह से पड़ता है कि हम ऑडिएंस को सिर्फ टकले सिर दिखते हैं। टेलीविज़न ये एथिक्स भी भूल जाता है कि ऑडिएंस के साथ किस हद तक ईमानदारी बरतनी है। क्या आज हम अपने हिस्से आयी इन तस्वीरों के जरिये टेलीविज़न के हीस्टीरिया फेज का अंदाजा लगा सकते हैं? थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ ये नज़ारा लगभग सभी चैनलों पर था।
पांच-दस-पंद्रह साल, बीस साल से जर्नलिज्म करनेवाले देश के मीडियाकर्मी किंग खान कहे जानेवाले शख्स की केक काटने की तस्वीर लेने के लिए पूरी ताक़त झोंक देते हैं। आपाधापी के बीच वो किसी भी तरह से उस तस्वीर को हम तक लाइव पहुंचाना चाहते हैं। टेलीविज़न ने लाइव देखने का जो रोमांच और दिखाने का जो आंतक हमारे बीच पैदा किया है, उसके पीछे किसी भी तरह के इथिक्स काम नहीं करते। हम सिर्फ टकले सिर और पिछाड़ी देखकर किस प्लेज़र मोड में अपने को पाते हैं, चैनल को इस पर एक बार ज़रूर सोचना चाहिए। बाज़ार की गोद में बैठकर भी पसीना बहानेवाले और उसका पक्ष लेनेवाले मीडियाकर्मियों से एक बार सवाल तो ज़रूर किये जाने चाहिए कि हम अगर आपके चाल-चरित्र को समझते हुए ये समझ रहे हैं कि आपके एजेंडे में सामाजिक विकास और दायित्व का मामला कहीं नहीं है तो फिर क्या देश के ये अनुभवी पत्रकार सिर्फ इस काम के लिए रह गये हैं कि वो हांफते हुए, अपनी हड्डियां चटकाते हुए केक काटने का लाइव शॉट तैयार करें? यहीं से उनकी एक्टिविटी के दो चरित्र हमें साफ तौर पर दिखाई देते हैं। एक चरित्र जहां कि वह लगातार “आइस संस्कृति” ( इनफॉर्मेशन, इंटरटेनमेंट और कनज्यूमरिज्म से पैदा की जानेवाली संस्किकृति) को मज़बूत करता नज़र आता है और दूसरा कि ख़बर हर कीमत पर या जहां हम हैं वहां ख़बर है के दावे के साथ अपने को समाज का पहरुआ साबित करने की कोशिश में लगे रहने की घोषणा करता है। मीडिया के ये दोनों चरित्र ऊपरी तौर पर एक दूसरे के वायनरी नज़र आते हैं लेकिन गंभीरता से देखें तो ये पहले के चरित्र को ही सपोर्ट करता नज़र आता है। ऐसे में सामाजिक मसले के सारे सवाल पहले के चरित्र में इमर्ज कर जाते हैं और एक नये किस्म की ख़तरनाक स्थिति पैदा होती है।
पिछले तीन दिनों से देश के लगभग सारे हिंदी चैनलों ने अपनी-अपनी इंदिरा खोजने और गढ़ने में अपनी ताक़त झोंक दी। इस इंदिरा यात्रा के जरिये उन सवालों से ऊपरी स्तर पर ही सही, लोकतंत्र के मिज़ाज और ज़रूरतों को समझने की कोशिश की गयी जो कि किसी भी देश के लिए खाद-पानी का काम करते हैं। इन तीन दिनों में फ्रैक्चर्ड डेमोक्रेसी का भी मसला जहां-तहां उठाया गया। अगर चैनलों की इस कोशिश में मौजूदा समय के सवाल जुड़ते तो उन्हें आज दस साल से लगातार अनशन पर बैठीं इरोम शर्मिला का ध्यान आता। उन्हें ये चेहरा उस प्रतिरूप के तौर पर याद आना चाहिए था जो कि प्रशासन के बर्बर हो जाने पर उसके प्रतिरोध में खड़े होनेवाले चेहरे को याद करने के तौर पर याद आते हैं। लेकिन भाव, आस्था और फिर अंधश्रद्धा की गोद में जाकर गिरनेवाले इस देश की ऑडिएंस के लिए चैनलों ने इस प्रतिरूप की सुध लेने के बजाय इंदिरा की स्टोरी करके बाद की थकान मिटाने के लिए शाहरुख़ की तरफ मुड़ना ज़रूरी समझा। वो अब चौबीसों घंटे देश के इस शख्स को दिखा-दिखाकर अवतार की इमेज बनाने में थक कर चूर हो जाएगा लेकिन वो कभी भी इस बात को सामने लाने की कोशिश नहीं करेगा कि मौजूदा हालात में मणिपुर का प्रशासन इरोम के साथ किस तरह की ज़्यादतियां कर रहा है? उसके लाख प्रतिकार के जाने के बावजूद भी किस तरह से नली के जरिये उन्हें खाना खिलाये जाने की जबरन कोशिशें की जा रही है, कैसे उन पर आइपीसी की धारा 309 लगाकर आत्महत्या की कोशिश के आरोप में 21 नवंबर 2000 को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया?
टेलीविज़न में सरोकार की ख़बरों की हिस्सेदारी की मांग करते हुए हमें देश के उन तमाम मीडियाकर्मियों तर्क बेहतर ढंग से याद हैं, जो ये मानते हैं कि जो दिखता है वही तो दिखाया जाएगा? इस मार-काट के धंधे में हम उन ख़बरों को लेकर रिस्क तो नहीं ले सकते जो कि टीआरपी पैद करने की कूव्वत नहीं रखते? तर्क और बहस का फिर उन तालठोंक चैलेंजों की तरफ मुड़ जाना कि तो आप ही सामाजिक सरोकार की ख़बरें दिखाते हुए चैनल चलाकर दिखा दीजिए, हम फिलहाल इस चैलेंज से तौबा करते हुए सिर्फ एक ही सवाल करना चाहते हैं? क्या हम चैनल सिर्फ केक के टुकड़े देखने के लिए देखते रहें, आपाधापी करते मीडियाकर्मियों के टकले सिर और पिछाड़ी देखने के लिए चैनल देखते रहें, सास की आस में दिल में सच और ज़ुबां पर इंडिया का लेबल लगा कर देखते रहें? ये आपका चैनल है, आपको जो जी में आए कीजिए, मन करे तो कैटरीना को रिपोर्टर बना दीजिए जो कि आपने बना ही दिया है लेकिन रह-रहकर सामाजिक विकास औऱ सरोकार का जो दौरा आप पर आता है, उसका हम क्या करें? आप जब ये दिखाते हैं कि इस देश में नक्सलवाद एक गंभीर समस्या है, इसे किसी भी रूप में कुचलनेवाले पी चिदंबरम का हीरोइक इमेज बनाते हैं, इस मसले पर राष्ट्र की चिंता का लेबल चस्पाते हैं, तब इन सारी बातों को हम किस रुप में लें? अगर आपके तर्क पर ये समझा जाए कि आप अपने को बचाये रखने के लिए इसे ज़रूरी मानते हैं कि टीआरपी ऑरिएंटेड होकर काम किया जाए तो फिर ये राष्ट्र, विकास, सरोकार ब्ला, ब्ला सब टीआरपी का ही हिस्सा हुआ न? तो फिर आप अपने भीतर वो ताकत क्यों नहीं पैदा कर पाते कि नक्सलवादियों द्वारा घरों के जलाए जाने,लोगों के मारे जाने की खबर टीआरपी का हिस्सा बन जाती है लेकिन राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर हजारों बेकसूर लोगों के जान लिए जाने की घटना टीआरपी का हिस्सा नहीं बनने पाती। पुलिस ने नक्सलियों को किस तरह से मार गिराया,टीआरपी का हिस्सा बन जाती है लेकिन पुलिस मशीनरी किससे किससे किसको बचाने का तुक्का प्रयास कर रही है ये हिस्सा नहीं बन पाता। गांधी के नाम पर कहां-कहां मूर्तियां लगायी गयी,समारोहों का आयोजन हुआ ये तो हिस्सा बन जाती है लेकिन उसी गांधी की अहिंसा का रास्ता अपनानेवाली इरोम शर्मिला कभी भी हिस्सा नहीं बन पाती। कहीं ऐसा तो नहीं कि मीडिया का पूरा चरित्र जहां उत्सवधर्मिता पैदा करने के मामले में बहुत चटकीला दिखायी देता है वहीं सरोकारों के सवाल पर ग्रे बनकर रह जाता है।
इस देश की तो फितरत ही रही है कि गांधी, भगत सिंह और शास्त्री जैसे लोगों को आदमी से बढ़कर अवतार की तरह पूजा जाता है लेकिन न तो इस बात की कामना होती है कि हमारे घर गांधी और भगत पैदा हो और अगर इसके चिन्ह कहीं दिखाई देते हैं तो उसे कुचल डालो। इसमें आपकी और टीआरपी की काबिलियत कहां तक है? इस देश में इंडियन ऑयडल खोजना आसान हो गया है, वॉइस ऑफ इंडिया खोजना आसान हो गया है, किंग खान की खोज एक दिन के भीतर हो सकती है लेकिन बदलाव के लिए उभरते चेहरों की या तो पहचान ध्वस्त की जाती है या फिर अपनी पूरी ताक़त इसे मिटा देने में लगा दी जाती है। अब जब आजादी, बदलाव, हैप्पीनेस और मैराथन टीआरपी के खांचे में ही रहकर आनी और होनी है, ऐसे में ज़रूरी है कि टीआरपी के खेल का विस्तार हो।
ख़बरों के चरित्र को लेकर जब भी टेलीविज़न की आलोचना की जाती है तो प्रिंट मीडिया का सिर अपने आप ही उचक जाता है। बरी कर दिये जाने के दर्प से उसकी अकड़ छिपाये नहीं छिपती। लेकिन इस क्रम में आइस यानी सूचना (मीनिंगलेस), मनोरंजन और उपभोक्तावाद के जरिये पैदा की जानेवाली ठंडी संस्कृति को मज़बूत करने में जुटा है, इस पर भी बात करना ज़रूरी है। आधे-आधे पन्ने में नंबर वन हरियाणा का राग अलापनेवाले अख़बारों से ये सवाल होने चाहिए कि तुरही बजाने की कला में लगातार निष्णात होनेवाले महानुभावो, क्या आपके पास एक कॉलम भी नहीं बचा रह जाता कि सरोकारों से जुड़ी ख़बरें उनमें छापी जा सके। क्या सामाजिक गतिविधियों की सूचना जानने के नाम पर हम अख़बार सिर्फ इसलिए खरीदते हैं कि उससे हम जान सकें कि गांधी जयंती के मौके पर खादी पर कितने प्रतिशत की छूट मिली है। ऐतिहासिकता और संदर्भों को इस आइस संस्कृति में लपेट मारने के पहले आपको कई सवालों के जबाब देने होंगे। ख़बरों को धकेलकर आप आंकड़ों की बदौलत राज करने की खुशफहमी में ज़्यादा दिनों तक जिंदा नहीं रह सकते।
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very shameful indeed !
ReplyDeleteI agree with the post , but title punchline of this blog is a lie yar !
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