Saturday 2 January 2010

क्‍या IBN 7 के एंकर संदीप चौधरी में भाषाई शऊर नहीं है?



मूलतः प्रकाशितः मोहल्लाlive

IBN7 के एंकर संदीप चौधरी के आक्रामक अंदाज़ का मैं कायल हूं। उनके इस अंदाज़ का असर मुझ पर कुछ इस कदर है कि अगर पहले से लेटकर टीवी देख रहा होता हूं तो उनके आते ही उठ कर सीधे बैठ जाता हूं। एक-एक वाक्य और उस हिसाब से चेहरे और नसों के खिंचाव को समझने औऱ महसूस करने की कोशिश करता हूं। लेकिन सच की आवाज़ हमेशा ऊंची होती है या फिर सच बोलने के लिए ज़रूरी है कि ऊंची आवाज़ में ही बात की जाए, इस फार्मूले पर भरोसा रखनेवाले संदीप चौधरी हमें कई बार व्‍यथित भी कर जाते हैं। कई बार महसूस होता है कि इस अंदाज़ को बरक़रार रखने में भाषाई स्तर पर वो बेहद खोखले और हल्के हो जाते हैं।

भारतीय टेलीविज़न में व्यक्ति आधारित समीक्षा या आलोचना की परंपरा विकसित नहीं हुई है। साहित्य या दूसरी विधाओं में एक कवि, कथाकार या आलोचक के ऊपर दर्जनों थीसिस लिखी जाती रही हैं। इसी अनुपात में उन पर शोध-पत्र और किताबें भी लिखी जाती रही हैं लेकिन भारतीय टेलीविज़न समीक्षा चंद मुहावरों, जार्गन और जुमले के बीच ही विश्लेषित कर दिये जाते हैं। आज संदीप चौधरी पर लिखकर टेलीविज़न के भीतर मैं व्यक्ति आधारित समीक्षा की न तो कोई शुरुआत करने जा रहा हूं और न ही साहित्यिक परंपराओं की कलम रोपने की कोशिश कर रहा हूं। मैं तो ऑडिएंस की उस समझ को सामने रख रहा हूं जो टेलीविज़न से हमेशा चैनल के नाम पर जुड़ने के बजाय उस पर आनेवाले लोगों के स्तर पर जुड़ता है। मसलन अगर IBN7 पर आशुतोष, संदीप चौधरी और ऋचा आना बंद कर दें तो मैं ख़बर देखने के लिए तो इस चैनल पर नहीं ही आऊंगा। उसी तरह प्राइम टाइम पर विनोद दुआ, अभिज्ञान और रवीश जैसे लोग आना छोड़ दें, तो एनडीटीवी इंडिया देखकर शाम ख़राब करने का कोई मतलब नहीं है। कहना सिर्फ इतना चाहता हूं कि आज न्‍यूज़ चैनलों की जो स्थिति है, उसमें लोग चैनलों के ब्रैंड से ज़्यादा व्यक्तिगत तौर पर आनेवाले एंकरों के हिसाब से जुड़ते हैं। ये बात पुण्य प्रसून जैसे एंकर के साथ आजमा कर देख लीजिए। पूरी ऑडिएंस का एक बड़ा हिस्सा है, जो कि इनके हिसाब से चैनल देखता है। ये जिस भी चैनल में जाएंगे, वो उन्हें देखेगी। वो पुण्य प्रसून को पहले देखती है, चैनल को बाद में।

बहरहाल, जिस संदीप चौधरी के अंदाज़ के हम कायल होते रहे हैं, वही संदीप चौधरी ने अपने भाषाई प्रयोग के स्तर पर हमें परेशान किया। हमें इस बात को अफ़सोस रहेगा कि एक अच्छा एंकर आक्रामक दिखने के लिए लगातार अपनी भाषा खोता जा रहा है। चेतन भगत और 3 इडियट्स को लेकर क्या कुछ चल रहा है, ये दुनिया जान रही है। दो जनवरी की रात मुद्दा कार्यक्रम के अंतर्गत संदीप चौधरी ने इसी मुद्दे पर बहस चलायी। उस बहस में क्या था और कौन लोग शामिल थे, इसकी तफसील में जाने से बेहतर है कि हम जो बात करना चाहते हैं, वही करें। आगे लिखने से पहले साफ कर दूं कि व्यक्तिगत तौर पर मुझे चेतन भगत की राइटिंग पसंद नहीं है। आज के हवाले से कहूं तो एक हद तक उनका अंदाज़ भी नहीं। लेकिन मेरे ऐसा कहने से चेतन भगत की हैसियत तय नहीं होती। मेरी क्या, शायद संदीप चौधरी के कहने से भी तय नहीं होती। ये अलग बात है कि मेरे कहने और संदीप चौधरी के कहने के असर में आसमान ज़मीन का फर्क है। लेकिन संदीप चौधरी के साथ देश के किसी भी मीडियाकर्मी को इस बात का एहसास होना चाहिए कि चेतन भगत का एक बड़ा पाठक वर्ग है। टेलीविज़न एंकरों को तो अपनी हार्डकोर ऑडिएंस पता करने में वक्त लग जाए लेकिन एक लेखक को मोटे तौर पर उसकी रीडरशिप की जानकारी होती है। इस हिसाब से बात करें तो चेतन भगत के पीछे रीडर्स का एक ज़बर्दस्त बैकअप है। इस हिसाब से चेतन भगत की हैसियत किसी भी मीडियाकर्मी से कम नहीं है।


चेतन भगत क्या लिख रहे हैं, उससे हमारी कितनी सहमति-असहमति है, इस बहस में न जाकर इतना मानने में क्या परेशानी है कि वो इस देश के एक सेलेब्रेटी लेखक हैं। एक ऐसे लेखक हैं, जो दुनिया के आगे साबित कर चुके हैं कि लिख कर आप कहां तक जा सकते हैं? देश का बच्चा-बच्चा (लिखने-पढ़नेवाला) उन्‍हें जानता है। आप सिर्फ कंटेट पर टिककर न बात करके ओवरऑल बात करें, तो वो एक सम्मानित और लोगों के चहेते लेखक हैं। पॉपुलरिटी के मामले में वो किसी भी पेशे के सिलेब्रेटी को टक्कर देने की हैसियत रखते हैं। पिछले साल जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में अमिताभ बच्चन से मिलने के बाद जिसके लिए सबसे ज़्यादा होड़ मची थी, वो यही चेतन भगत थे। इसलिए उनकी राइटिंग से मानें या न मानें, पॉपुलरिटी से तो उन्‍हें बड़ा लेखक मान ही सकते हैं।

अब देखिए, मुद्दा में ज़ोर-शोर से बहस चल रही है। चेतन भगत नॉर्मल अंदाज़ में अपनी बात रख रहे हैं। इसी बीच संदीप चौधरी ने दूसरी ही तान छेड़ दी। हैलो फिल्म जब आयी थी तब भी आपको क्रेडिट नहीं दिया गया था, तब तो आप चुप थे लेकिन अब आप हल्ला कर रहे हैं। क्या 3 इडियट्स फिल्म अगर इतनी पॉपुलर नहीं होती तब भी आप ऐसा ही करते। मुझे याद आ रहा कि संदीप ने शायद ये भी कहा, पक्का नहीं कह सकता लेकिन भाव यही थे कि तब भी आप इसी वाल्यूम में बात करते। इसी के जवाब में चेतन ने कहा कि मैं कौन-सा छत पर जाकर चिल्ला रहा हूं। एक लेखक को अपनी बात रखने का हक़ है। लेकिन संदीप उन्‍हें सुनते ही नहीं, चिल्लाते हैं, अपनी ही रौ में बहे चले जाते हैं। सवाल ये है कि संदीप चौधरी या फिर देश का कोई भी मीडियाकर्मी जिस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करता है, क्या उसमें लेखक को अपनी बात रखने की आज़ादी शामिल नहीं है। फिर वो चिल्लाना कैसे हो गया? संदीप चौधरी का ये भाषाई प्रयोग जायज़ है? इस पर बात होनी चाहिए।

चेतन भगत ने ऐसा कौन सा अपराध कर दिया कि उसके लिए इस तरह की भाषा इस्तेमाल की जाए? तब फिर आपके ऊपर हमले होते हैं और दिन भर स्टोरी चलती है – लोकतंत्र पर हमला तो वो चिल्लाने से किस रूप में अलग है? बेबाकी और आक्रामक अंदाज़ का मतलब ये तो बिल्कुल भी नहीं कि आपके सामने जो पड़ जाए, उसकी उतार कर रख दें। यही काम उन्होंने आगे भी किया।

चेतन भगत के ये बार-बार कहे जाने पर कि राजू (राजकुमार हीरानी, प्रोड्यूसर : 3 इडियट्स) सिर्फ इतना कह दें कि वो तीसरे नंबर पर यानी अभिजीत जोशी और स्वयं राजकुमार हीरानी के बाद मेरा नाम डाल देंगे, तो सारा झंझट ही ख़त्म हो जाएगा। संदीप चौधरी ने प्रोड्यूसर से पता करके बताया कि वो उठ कर चले गये हैं। कुछ ही देर बाद राजकुमार हीरानी का फोनो चलता है, जिसमें वो बताते हैं कि मेरी पत्नी टीवी पर ये सब देख कर शॉक्ड है। मैं घर पर टीवी देख रहा हूं और मैं भी शॉक्ड हूं कि मैं तो लाइव था ही नहीं, फिर आपने कैसे कह दिया कि मैं उठ कर चला गया? संदीप चौधरी बस इतना भर कहते हैं कि हम कोई ग़लती करते हैं तो इज़हार कर लेते हैं। अब देखिए, जब वो चेतन भगत से बात करते हैं, तो लगता है कि वो पूरी तरह से हीरानी के फेवर में बात कर रहे हैं क्योंकि चेतन के प्रति बहुत ही बेरुखी भाषा अपनाते हैं। लेकिन हीरानी की बात आने पर उठकर चले गये, फिर उनके प्रति भी यही रवैया। हीरानी अपनी पूरी बात करते, इसके पहले संदीप चौधरी शो समेट-समाट कर चल देते हैं। इसी क्रम में हीरानी बता जाते हैं कि चैनल ने उनके साथ क्या किया? मतलब ये कि अगर कोई कॉन्शस न रहे तो लाइन, दो लाइन के प्रयोग से किसी की भी बत्ती लगाने में चैनल को दो मिनट का भी समय नहीं लगता। सवाल ये कि क्या तटस्थ होने या ऑडिएंस को दिखलाने के लिए भाषाई स्तर पर अपने को ख़त्म कर लेना ज़रूरी है? ऐसा लोगों को वाजिब सम्मान देते हुए नहीं किया जा सकता क्या? ये ज़रूरी है कि एंकर हर शो में ये साबित करे कि वो एंकर है और उससे बात करनेवाले जो भी लोग हैं, उनसे नीचे की कतार में खड़े हैं। देखा-देखी में पूरी की पूरी पीढ़ी तटस्थ होने का मतलब भाषाई स्तर पर लोगों की उतार देना समझा करेगी। लोगों को सम्मान देने और भाषाई स्तर पर सभ्य होने का हुनर क्यों खत्म कर रहे हैं हमारे एंकर, जरा सोचिए।

5 comments:

  1. really the truth is that today anchors dont know that there is another side of the coin also. they only see, think and get facinated by their own ideas and try to impose their thoughts on the others......
    good attempt..

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  2. अब यह तो वहीं जाने लेकिन इस सब को देख कर कोफ्त जरूर होती है....ऐसा कई बार देखने मे आता है कि सामने वाला कुछ और कहना चाहता है लेकिन उस के कुछ कहने से पहले ही माइक किसी दूसरे के सामने पहुँच जाता है....

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  3. कोई हैरानी नहीं हुई ये पढ़ कर. सभी चैनलों पर आज बस दो ही चीज़ें प्रचलित हैं - 1. पटापट तेज़ी से बोलना 2. बद्तमीज़ी से बोलना.

    नई पौध को लगता है कि यही है सफलता व महानता की कुंजी. लानत है.

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  4. Main bhi TV anchokon ke aakraamak tevar our khabar se khelane evam unhen uchhalane ke trend ka virodhi hoon. vinod Dua ki Baten tham kar sunane ko dil karta hai,wo ek behatereen anchor nahi?

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  5. telivision ki bhasha kaisi honi chahiye, ispe bahut bahas ho chuki hai. Loud hone ke mammle me Sandip bhi deepak chaurasia aur ashutosh ki kadi me aate hain. Bol-chal ke mamle me laoudness ka fark itna hai ki unki padhai likhai jyada english aur economics me hui, MP ya UP se nahi aate hain, pashchimi uttar pradesh-cum-haryana ki chhap to bhasha me rahegi hi..isliye kam se kam unki bhasha par baat ya afsos karna bekar hai..itna zaroor hai ki Vinodji(vinod dua) ki sangat me wo shaleen nahi ho sake.

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