Monday 12 January 2009

टीवी ने बदला है कपड़ों के रंगों का वर्गीय चरित्र


कैसा देहाती-भुच्च जैसा रंग उठाकर आया है। लाल,पीला,हरा भला शोभा देता है। रंगों में भी क्लास देखने के हम अभ्यस्त हैं। अगर इसकी किसी लम्बी सूचि में न भी जाएं तो भी ये बहुत साफ है कि संभ्रांत लोगों के कपड़ों के रंग क्या-क्या होते हैं,इलीट लोगों के कपड़ों के रंग क्या होते हैं और निचले तबके और अनकल्चर्ड लोगों के कपड़ों का रंग क्या होता है। इसलिए हम लम्बे समय तक लाल,हरा, पीला या फिर इस तरह के चटक रंगों की शर्ट, फ्रॉक या ट्राउजर पहननेवालों को या तो टपोरी, लखैरा,बेउड़ा समझते आए हैं या फिर गांव-देहात का आदमी जिसको कि ड्रेसिंग सेंस है ही नहीं।
खेतिहर-मजदूर किस्म के लोग आमतौर पर चटक रंगों के कपड़े खरीदते हैं। बुजुर्गों के मामले में ये बाती पूरू तरह लागू नहीं भी होती है तो भी बच्चों और नयी पीढ़ी के लोगों पर ये बात काफी हद तक लागू होती है। उनके इन रंगों के कपड़े खरीदने के पीछे का तर्क बहुत साफ है- कि कुछ दिनों के बाद इनके मैटमैले रंग हो जाने हैं, इसलिए शुरुआत के कुछ दिनों तक लगे कि कपड़े नए हैं। नहीं तो हल्के भूरे,क्रीम, ऑफव्हाइट या आसमानी रंग इन्हें पसंद नहीं है, ऐसा आप नहीं कह सकते। दूसरी बात कि इन कपड़ों के जल्द ही गंदे हो जाने का खतरा होता है जबकि इन लोगों का वैले रंगों पर जोर ज्यादा होता है जिसके गंदे हो जाने पर भी पता नहीं चले। कपड़े जल्दी गंदे हो जाने और मैल को पचा जाने के पीचे का अपना तर्क है और पूरा का पूरा एक समाजशास्त्र भी।
जबकि समाज का वो तबका जो सम्पन्न है,जिसके लिए रंगों और कपड़ों का चुनाव जल्दी गंदे होने या नहीं होने के आधार पर न होकर उनकी पसंद औऱ अलग दिखने की स्ट्रैटजी के आधार पर होता है। इसलिए सफेद, स्काइ ब्लू या फिर दूसरे वो रंग जिस पर जरा-सा भी धूल या सिलवटें आ जाए तो भद्दा दिखने लगता है, इनकी सूची में पहले होता है। इस हिसाब से आप रंगों के साथ-साथ फैब्रिक को भी शामिल कर सकते हैं। हिन्दुस्तान जैसे देश में कपास की पैदावार औऱ सूती कपड़ों के पर्याप्त मात्रा में उत्पादन होने के वाबजूद भी सिंथेटिक कपड़ों की भारी खपत के बीच आप इस पूरे विमर्श को रख सकते हैं।
एक लाइन में कहें तो लम्बे समय तक और एक हद तक अभी भी सामाजिक हैसियत और परिवेश के हिसाब से कपड़ों के रंगों का प्रयोग चला आ रहा है। लेकिन टेलीविजन की उपस्थिति ने रंग के इस समाजशास्त्र में भारी फेरबदल किया है,अगर इसे कहा जाए कि टेलीविजन ने रंगों के पीछे के तर्क को उलट-पलटकर रख दिया है तो बेमानी नहीं होगा।

टेलीविजन का बहुत ही सिम्पल-सा तर्क है कि आप किन कपड़ों में, किन रंगों में कितना सुंदर दिखते हैं, इससे कोई मतलब नहीं है। मतलब इस बात से है कि कैमरे को आपके उपर कौन-सा रंग पसंद है। मामला यहीं से बदल जाता है। जिन रंगों को आप और हम देहाती भुच्च रंग कहकर रंगों का एक वर्गीय चरित्र गढ़ने में लगे रहे, टीवी उस चरित्र को तोड़ता है.कैमरे को वो रंग ज्यादा पसंद हैं, टीवी स्क्रीन पर उन रंगों की उपस्थिति ज्यादा बेहतर लगती है जिसे कि सेंसलेस फेसेज की पसंद बताया जाता रहा है। दूरदर्शन ने भी जब स्क्रीन पर रंगों का इस्तेमाल किया तो काफी हद तक उन्हीं रंगों का प्रयोग किया जो कि सामाजिक मान्यताओं से मेल खाते। उसने अपनी तरफ से बहुत अधिक प्रयोग नहीं किए। सीरियलों के मामले में तो फिर भी गुंजाइश रही लेकिन न्यूज रीडिंग में कुछ खास नहीं.

निजी चैनलों ने कपड़ों के रंगों और उसके समाजशास्त्र को पूरी तरह बदल दिया है।
अगले अंक में भी जारी....

1 comment:

  1. अच्‍छा लिखा है....अगली कडी का इंतजार रहेगा।

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