Wednesday 14 January 2009
टेलीविजन और रेड कार्गो
तो जो रंग कभी देहाती और गंवई लोगों के बताए जाते रहे, टेलीविजन ने उन्हीं रंगों से स्क्रीन को पाट दिया। जिन चटक रंगों को दूरदर्शन ने नाट्य प्रस्तुति या खास मौके तौर पर इस्तेमाल किए, निजी चैनलों ने उसे रोजमर्रा के तौर पर इस्तेमाल करने शुरु कर दिए। हालांकि स्क्रीन को रंगीन बनाने की कहानी सिर्फ पोशाकों से शुरु नहीं होती। इलहू कर्टज ने इसे चैनलों के अपने खुद के गेटअप बदलने से शुरु कहानी मानते हैं। बीबीसी ने नीले, आसमानी के बजाय अपने को लाल कर लिया, कुछ काले रंग डाले और कहीं-कहीं सफेद। ये बहुत ही बेसिक रंग थे लेकिन इससे जो कॉन्ट्रास्ट पैदा हुआ वो अब तक के लिए एक नया प्रयोग रहा। अब तक बलू ग्रुप के रंगों को ही ऑफिशियल कलर माना जाता रहा, ये धारणा टूटती है। उसके बाद आप देखते हैं कि आजतक, आइबीएन सेवन से लेकर हाल ही में शुरु हुए चैनल लाइव इंडिया ने अपने रंग लाल, काला औऱ सफेद कर लिए। लाल औऱ काले का कॉविनेशन अभी भी जोर पर है। ये अलग बात है कि दूरदर्शन खबरों के मामले में चाहे जो भी हो, रंगों के मामले में निजी चैनलों से दो कदम आगे है। ब्लू, स्टील व्हाइट और आसमानी किए हुए दो साल से ज्यादा नहीं हुए कि उसने अपना रंग लाल-पीला कर लिया। स्क्रीन के बदलने और चैनल के गेटअप में रंगों के संयोजन का एक अलग किस्सा है, जिसकी चर्चा फिर कभी। फिलहाल बात पोशाक पर ही करें।
एंकर ने शुरुआती दौर में सबसे ज्यादा काले रंग की कोट या ब्लेजर को अपनाया, इसमें ब्लू रंग भी शामिल किया। ये गेटअप कुछ इस तरह से स्टैब्लिश हुआ कि प्राइवेट चैनल के एंकरों का ड्रेस कोड सा हो गया। लेकिन बाद में ब्लेजर के रंग तेजी से बदलने लगे। मेल एंकर में ब्लेजर के रंगों को लेकर अभी भी एक हद तक स्टैब्लिटी है लेकिन फीमेल एंकर के ब्लेजर या कोट उन तमाम रंगों के हो गए हैं जो आपको गुलाल के रुप में, पेंट के रुप में या कम्प्यूटर के कलर बक्से में मौजूद होते हैं। यही बात टॉप के साथ भी लागू होती है। दुनियाभर के रंगों को शामिल करने के पीछे लॉजिक सिर्फ इतनी होती है कि स्क्रीन पर ऑडिएंस को फ्रेशनेस का एहसास हो। ये अलग बात है कि कई बार खबरों की प्रकृति और एंकर की पोशाक के रंगों से कोई मेल नहीं होता और आपको अटपटा भी लग सकता है।
दूसरी तरफ आप मनोरंजन चैनलों पर पोशाक की रंगों की बात करें। यहां तो आप पोशाक को रंगों के अलावे उसकी वरायटी को लेकर अलग से चर्चा कर सकते हैं। कभी फैशन के मामले में चर्च गेट और खड़गपुर का जो नाम रहा है अब ये काम ये चैनल ही कर देते हैं। लेकिन रंगों के मामले में आपको स्पष्ट विभाजन समझ में आ जाएगा। जो जितनी बड़ी सिलेब्रेटी है उसकी पोशाक के रंगों को लेकर उतना ही चटकीलापन है। आप कह सकत हैं कि सिलेब्रेटी के बीच बोल्ड कलर ज्यादा खपत में है या फिर सिलेब्रेटी बनने के लिए या बन जाने के बाद या दिखने के लिए चटक और बोल्ड रंगों का इस्तेमाल करने लग जाते हैं। नतीजा आपके सामने है। केसरिया, गाढ़ा लाल, बिल्कुल काला, पैरॉट ग्रीन, पर्पल, जामुनी, गोल्डन, सिल्वर या मेटैलिक जैसे रंग जिसे फीमेल कलर माना जाता रहा, जिसे साडियों और दुपट्टे का रंग माना जाता रहा आज उसी रंग की शेरवानी, सूट या फिर सर्ट से स्क्रीन औंधा पड़ा है। स्क्रीन प ये काम फ्रेशनेस दिखने के लिए किया जाता है, उत्साह और स्पेशलियटी पैदा करने के लिए किया जाता है। लेकिन आझ यही रंग स्क्रीन से बाहर की दुनिया यानि रीयल लाइफ में भी घुसता चला जा रहा है।
लड़कों के लिए लाल रंग तो दिन-चार साल पहले से ही कॉमन हो गए लेकिन पर्पल, पिंक, पैरॉट ग्रीन, मेटैलिक इधर एक-डेढ़ साल में पॉपुलर हुए हैं। इस फर्क को आप फैब्रिक के साथ जोड़कर देख सकते हैं। ये अलग बात है कि स्क्रीन पर बेहतर दिखनेवाले ये रंग जब रीयल लाइफ में पहनकर कोई चलते-फिरते दिख जाता है तो एक बार फिर से देहाती टर्म याद हो आता है। लेकिन
देश और दुनिया की हजारों छोटी-बड़ी कम्पनियां पुराने रंगों को अपदस्थ करते हुए टेलीविजन के रंगों को प्रोमोट करने में लगी है। इसमें लिवाइस, लायकी, यूसीबी, स्पाइकर, यूनी स्टाइल, पेइपेइ जीन्स से लेकर कोलकाता के मंग्ला हाट औऱ दिल्ली के गांधीनगर की छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी कम्पनियां शामिल है। कोई लिवाइस की लाल कार्गो पहनता है तो लिवाइस होने की वजह से आप उसके रंग पर सवाल नहीं कर सकते क्योंकि लिवाइस को लेकर सवाल नहीं किए जा सकते। यूसीवी की पैरॉट ग्रीन पर आप नाक-भौं सिकोड़ नहीं सकते। ब्रांड की ताकत के आगे रंगों का चयन बहुत मायने नहीं रखता। हम मान कर चलते हैं कि ये कंपनियां हमसे ज्यादा दिमाग रखती है।
दूसरी तरफ आप गांधीनगर में, मोनेस्ट्री में २५० रुपये की मिल रही लाल कार्गों पर सवाल नहीं कर सकते क्योंकि जब लिवाइस लाल रंग की बना सकता है तो फिर इसमें गलत क्या है। तब आप ब्रांड के फैशन से रंगों के फैशन पर चले जाते हैं और घूम-फिरकर टेलीविजन के रंगों को अपना लेते हैं। उम्रदराज लोगों के बीच भी रंगों की बढ़ती च्वाइस की वजह यही है कि टेलीविजन में भी पचास-पचपन साल का कैरेक्टर हल्दी पीला कुर्ता और आसमानी पायजामा पहनकर टहलते नजर आता है और फिर वही बात कि टेलीविजन में झूठ थोड़े ही दिखाता है।....अब कोई कहे तो कहे कि बाकी चीजों की तरह टेलीविजन ने गांव औऱ गरीब-गुरबा लोगों के रंगों को भी हथिया लिया है। लाल-पीला अब सिलेब्रेटी लोग पहनते हैं, आम आदमी नहीं।
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