Wednesday, 14 January 2009

टेलीविजन अंततः मनोरंजन का माध्यम है- गिरीन्द्र


दोस्तों, इस सप्ताह से टीवी PLUS पर टेलीविजन को लेकर ब्लॉगर की व्यक्तिगत राय क्या है, प्रकाशित करने जा रहे हैं। प्रत्येक सप्ताह हम किसी एक ब्लॉगर से बातचीत करके ये जानने की कोशिश करेंगे कि टेलीविजन ने समाज, परिवेश और सोचने के तरीके को किस तरह बदला है, किस तरह से उसने एक अलग समाज रचने की कोशिश की है। बातचीत के दौरान ब्लॉगर टेलीविजन को लेकर अपने अनुभव, विचार और इस संबंध में जो भी उनकी प्रतिक्रिया है, हमसे साझा कर सकेंगे। इस कड़ी में आज हम बातचीत कर रहे हैं गिरीन्द्र से। गिरीन्द्र आइएनएस न्यूज एजेंसी से जुड़े हैं। गिरीन्द्र शुरुआती दौर के ब्लॉगरों में से हैं। पिछले कुछ सालों से अनुभव www.anubhaw.blogspot.com नाम से चर्चित अपने ब्लॉग का संचालन भी करते आ रहे हैं।



विनीत- गिरीन्द्र, बिना किसी औपचारिकता के, सबसे पहले हम चाहेंगे कि आप टेलीविजन से जुड़ी अपनी यादों के बारे में हमें कुछ बताएं।
गिरीन्द्र- टेलीविजन पर जब भी सोचता हूं तो मुझे मेरा बचपन सबसे पहले याद आता है। कब टीवी देखना शुरु किया, ठीक-ठीक याद किया लेकिन इतना जरुर है कि चित्रहार और चंद्रकांता जैसे टीवी प्रोग्राम से पहली बार जुड़ा औऱ उसके बाद से टीवी देखने लगा। मुझे चंद्रकांता का यक्कू अभी भी याद है। उसके बाद हमने टीवी पर कई कार्यक्रम देखने शुरु किए,सिनेमा, संसद की बहसें औऱ भी बहुत कुछ।

विनीत- गिरीन्द्र जिस समय आपने टेलीविजन देखना शुरु किया या यों कहें कि स्कूल के दिनों में जब आप टीवी देखा करते, लोगों की क्या राय बनती थी, वो टेलीविजन को किस रुप में लेते रहे।

गिरीन्द्र- उस समय भी टेलीविजन को लेकर दो तरह के लोग या कहें कि दो तरह की राय रखनेवाले लोग रहे, एक के लिए तो टेलीविजन फालतू की चीज रही, जिससे कि समय बर्बाद होता है, इससे किसी भी तरह से भला नहीं हो सकता औऱ दूसरे वो लोग रहे जिनके हिसाब से टेलीविजन से समझ विकसित की जा सकती है। उनका विरोध टेवीविजन से न होकर उसके कुछेक कार्यक्रमों से होती। खुद मेरे पापा कहा करते- आओ भारत की खोज देखो, वो चाहते कि हम टीवी पर संसद की बहसें सुना करें। लेकिन मेरी अपनी राय है कि तब भी लोग टेलीविजन को सूचना या खबर के लिए कम और मनोरंजन के लिहाज से ज्यादा देखा करते। टीवी देखते हुए भी वो खबरों के लिए बीबीसी(रेडियो) से जुड़े रहते। मैं तो टीवी को मनोरंजन का ही माध्यम मानता हूं।

विनीत- याद कीजिए, तब बहुत ही कम लोगों के घरों में टेलीविजन हुआ करते थे, ऐसे में लोग एक-दूसरे के यहां जाकर टीवी देखते। आप सामूहिक रुप से टेलीविजन देखने के बारे में कुछ बताएं।

गिरीन्द्र- आमतौर पर लोग धार्मिक कार्यक्रमों को ही सामूहिक तौर पर देखते। धर्म के नाम पर टेलीविजन लोगों को जोड़ने का काम करता। किसी के घर में टीवी नहीं होती और किसी के घर में होती भी तो लाइट चली जाने से जिनके यहां बैटरी होती, उनके यहां देखने चले आते। लेकिन ऐसा रामायण और महाभारत के मामले में ही ज्यादा हुआ। बाद में भी धार्मिक सीरियल आए लेकिन तब लोग सामूहिक रुप से बहुत अधिक नहीं देखा करते। धीरे-धीरे टेलीविजन की संख्या भी बढ़ती जा रही थी।

विनीत- इसी क्रम में महिला दर्शकों के बारे में कुछ बताना चाहेंगे।

गिरीन्द्र- महिलाएं भी धार्मिक सीरियलों को ही साथ-साथ बैठकर देखा करती या फिर दूसरे के घरों में जाकर देखती। हां बाद में शांति नाम से एक सीरियल आया औऱ महिलाओं ने उसे साथ देखना शुरु किया, उस पर चर्चाएं करती। आप कह सकते हैं कि टीवी सीरियल देखने का चस्का लगाने में शांति का बड़ा हाथ है।

विनीत- गिरीन्द्र ये तो बात हुई टेलीविजन के उस दौर की जब सिर्फ दूरदर्शन हुआ करता था, उस समय तक टेवीलिजन कहो या फिर दूरदर्शन, बात एक ही थी। अब कुछ निजी चैनलों के बारे में चर्चा की जाए।

गिरीन्द्र
- निजी चैनलों को मैंने १९९६-९७ से देखना शुरु किया। इन चैनलों का शुरु से ही हमलोगों के बीच क्रेज रहा। एक तो मैं खुद मीडिया की तरफ आना चाहता था, इसलिए इन चैनलों को देखा करता और दूसरा कि इसमें गाने आते, फिल्में आती। गानों और फिल्मों ने मुझे इन चैनलों की तरफ ज्यादा आकर्षित किया।

विनीत- निजी चैनलों के आने पर आप टेलीविजन औऱ ऑडिएंस के बीच संबंधों के बदलाव को आप किस रुप में देखते हैं। एक बात तो साफ है कि शुरुआती दौर में इसकी भी ऑडिएंस वही रही जो एक समय दूरदर्शन की ऑडिएंस रही, बाद में इन चैनलों ने अपना एक ऑडिएंस वर्ग तैयार किया।

गिरीन्द्र- बिल्कुल, निजी चैनलों के आने से, इसे आप ऐसे भी कह सकते हैं कि छतरी के आ जाने से कई घरों के टेलीविजन ड्राइंग रुम से शिफ्ट होकर बेडरुम तक पहुंच गए। एक ही घर में एक से ज्यादा टेलीविजन इसी निजी चैनलों की देन है। घर का गार्जियन कुछ और देख रहा है तो उसके बच्चे कुछ अलग चीजें देख रहे हैं।

विनीत- लेकिन इसी समय ये बात औऱ जोर पकड़ने लगी कि टेलीविजन लोगों को भ्रष्य करने का काम कर रहा है,ये आनेवाली पीढ़ी को बर्बाद करके रख देगा। इस पर कुछ टिप्पणी करना चाहेंगे।

गिरीन्द्र- टेलीविजन लोगों को भ्रष्ट करने का काम करता है, इसे मैं लोगों की व्यक्तिगत राय मानता हूं। सच बात तो ये है कि इन चैनलों के आने से लोगों के भीतर कुत्सित भावना में कमी आयी है। अब कोई छुप-छुपकर टीवी नहीं देखता। टीवी देखते हुए अब कोई ये नहीं सोचता कि वो कोई अपराध कर रहा है। इसे मैं एक खुलेपन का महौल बनाने में मददगार माध्यम मानता हूं। अब घर के लोग कंडोम मतलब समझदारी के विज्ञापन को साथ बैठकर देखने लगे हैं। कोई हिचक नहीं, कोई असहज भाव नहीं।

विनीत- गिरीन्द्र, आप जिसे खुलेपन का नाम दे रहे हैं, इसे क्या बाकी जगहों पर भी सोशल प्रैक्टिस के रुप में देखा जा सकता है। हम यों कहें कि क्या टेलीविजन एक ओपन सोसायटी गढ़ने में हमारी मदद कर रहा है।

गिरीन्द्र- इसे सीधे-सीधे तो पूरी तरह नहीं मान सकते लेकिन हां एक समय ऐसा जरुर आएगा, जब लोग टेलीविजन देखकर असल जिंदगी में भी खुलने लगेंगे। शहरों का तो बहुत अनुभव नहीं रहा लेकिन अपने गांव और कस्बों के अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि इसकी शुरुआत हो चुकी है, लोग अपने उन रिश्तेदारों से सहज होकर बात करने लगे हैं, जिनके आगे वो घूंघट तानकर आते रहे, सिर झुकाकर बात करके रहे। स्त्रियां पहले से फ्रैंक होने लगी है।

विनीत- तो क्या आप ये कहना चाह रहे हैं कि टेलीविजन पर्सनालिटी परफेक्शन का माध्यम है।

गिरीन्द्र- इस बात को मैं अपने गांव से जोड़कर देखना चाहूंगा। लोग अब ऐसे मसलों पर बात करते नजर आते हैं जिसे आप अर्वन इश्यू कहते रहे हैं, फैशन और रहन-सहन के स्तर पर तो टेलीविजन ने एक जबरदस्त नजरिया दिया है उन्हें। किस सीरियल में किसने कौन-सी ज्वेलरी पहनी और किस मौके पर क्या पहनना चाहिए, किन रंगों का चुनाव बेहतर होगा,इन सारी बातों का सीधा असर मैं अपने गांव के लोगों में देखता हूं। टीवी का असर या फिर टीवी से उनका किस हद तक जुड़ाव है, ये विश्वास कि टेलीविजन उन्हें बेहतर बनाता है, इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि जब वहां के लोग दिल्ली या हरियाणा जैसे शहरों में काम करने आते हैं तो वापस साथ में टीवी ले जाते हैं, गांव जाकर २००० रुपये में डिश लगाते हैं। वो अब टीवी को एक अनिवार्य चीज के तौर र लेने लगे हैं।
और जो बात आप पर्सनालिटी परफेक्शन के तौर परकर रहे हैं, उसका एक उदाहरण आपके सामने देना चाहूंगा। मेरे गांव में मेरा एक दोस्त श और स को टेलीविजन देख-देखकर दुरुस्त किया। आप जानते हैं एक खास क्षेत्र के लोगों के बीच इस तरह के उच्चारण को लेकर समस्या है। दूसरी बात, टेलीविजन ने संस्कृति के स्तर पर, रहन-सहन और पहनावे-ओढ़ावे के स्तर पर शहर औऱ गांव के बीच फर्क को काफी हद तक कम किया है। अब गांव के लोगों के लिए
भी कोई भी चीज अंजान नहीं है, अब आप नहीं कह सकते कि फलां चीजों का इस्तेमाल सिर्फ शहर के लोग ही करते हैं। टेलीविजन इस धारणा को खत्म करता है।

विनीत- गिरीन्द्र, अभी तक जो भी बातें हम कर रहे हैं, वो ओवरऑल टेलीविजन पर कर रहे हैं, न्यूज चैनलों को लेकर भी कुछ बात कर लें।

गिरीन्द्र- अब लोगों ने न्यूज चैनल देखने कम कर दिए हैं। अब पहले वाली बात नहीं रही कि आजतक के कुछ कार्यक्रमों और विनोद दुआ जैसे पत्रकारों की वजह से लोग न्यूज चैनलों को उतने ही चाव से देखते जितने चाव से किसी सिनेमा औऱ मनोरंजन के कार्यक्रमों को। अब एक न्यूज चैनलों में न्यूज नहीं रह गए हैं, सब मनोरंजन और खिलंदड़पन रह गया है और दूसरा कि लोग अब भी टेलीविजन को मनोरंजन के माध्यम के रुप में लेते हैं।

विनीत- इस संबंध मे आपकी क्या प्रैक्टिस है।

गिरीन्द्र- मैं भी न्यूज चैनल बहुत ही कम देखता हूं। देखता भी हूं तो या तो एनडीटीवी या फिर सीएनएन आइबीएन। बाकी टीवी को मैं फिल्मों और गानों के लिए ज्यादा देखता हूं और मेरे जसे दर्शकों की संख्या ज्यादा है औऱ तेजी से बढ़ रही है। लोग मनोरंजन की तरफ ज्यादा तेजी से भाग रहे हैं।

विनीत- एक सवाल ये भी है कि टेलीविजन कन्ज्यूमर कल्चर को प्रोमोट करते हैं, खासकर उनके विज्ञापन। इस संबंध में कुछ कहना चाहेंगे।

गिरीन्द्र- सच कहूं तो विज्ञापन को लेकर लोगों का आकर्षण पहले से कई हुना बढ़ा है। विज्ञापन पहले से ज्यादा टची होने लगे हैं। वो सीधे-सीधे नहीं कहते कि फलां सामान खरीदो। उसमें जबरदस्त क्रिएटिविटी है। मेरे कई दोस्त यूट्यूब से उठाकर एक ही विज्ञापन को कई-कई बार देखते हैं। औऱ जहां तक बात कन्ज्यूरिज्म की है तो इसका असर आपको कस्बाई और ग्रामीण क्षेत्र की ऑडिएंस में ज्यादा मिलेगा। शहर के लोगों ने एक हद तक टीवी देखना ही बंद कर दिया।

विनीत- गिरीन्द्र, चलते-चलते आखिरी सवाल, आप इस पूरे बदलाव को किस रुप में देखते हैं। टेलीविजन से बनने वाले देश को लेकर आपकी क्या प्रतिक्रिया है

गिरीन्द्र- देखिए, एक बात तो है कि टेलीविजन हमें मोनोटोनस बनाता है, देश-दुनिया छोड़कर चिपक जाने की लत पैदा करता है। एक हद तक नास्टॉलजिक भी कर देता है। लेकिन इन सबके वाबजूद मैं इसे साकारात्मक रुप में लेता हूं। इसका प्रसार आनेवाले समय में सही दिशा में होगा। इसे मैं कस्बाई जीवन के बीच क्रांति का माध्यम मानता हूं। उनके बीच टेलीविजन के कारण जो कुछ भी बदलाव आ रहे हैं, उसे काफी हद तक बेहतर मानता हूं। औऱ उम्मीद करता हूं कि आनेवाले समय में टीवी से लोगों का भला होगा।

विनीत- टेलीविजन से बदलता है देश कॉन्सेप्ट पर बात करने के लिए शुक्रिया
गिरीन्द्र- धन्यवाद




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