Saturday 31 January 2009

जिनके लिए,एक सपने में बदल जाते हैं बड़े पत्रकार




रवीश कुमार,पुण्य प्रसून वाजपेयी,आशुतोष औऱ सम्स ताहिर खान जैसे हिन्दी पत्रकारों की स्टोरी दिखाते हुए जब मैं मीडिया के बच्चों से पूछता जाता- पहचानते हैं न इन्हें आप। बच्चे बाकी जबाबों के मुकाबले कुछ ज्यादा उंची आवाज में जबाब देते- हां सर, पहचानते हैं। एक पल के लिए मुझे देखते, मानों हमसे ही सवाल करना चाह रहे हों-इन्हें कैसे नहीं पहचानेगें, इन्हें कौन नहीं पहचानेगा या फिर इनको नहीं पहचानेगा कोई तो किसे पहचानेगा। मैं ये सवाल करते हुए कोई सर्वे नहीं नहीं कर रहा था कि मीडिया पढ़नेवाले बच्चों के बीच हिन्दी का कौन-सा टेलीविजन पत्रकार सबसे ज्यादा पॉपुलर है। मैं तो सिर्फ इस बात का अनुमान लगाना चाह रहा था कि मीडिया के ये बच्चे रेगुलर टेलीविजन देखते हैं भी या नहीं। टेलीविजन देखते हैं तो किस बुलेटिन को देखते हैं, वगैरह,वगैरह......। बिना टेलीविजन देखे, टेलीविजन पर बात करना कुछ वैसा ही है जैसे पद्मावत पढ़कर सिंहलद्वीप के बारे में सोचना और कल्पना करना। जो टेलीविजन नहीं देखते उनके लिए सब हवा-हवा धुआं-धुआं-सा लगता है। खैर,
डीयू के अंबेडकर कॉलेज के बुलाने पर,जिंदगी में पहली बार मैं लेक्चर देने गया था। विषय तय था- खबरों की बदलती दुनिया और नए पत्रकारों की चुनौतियां। खबरों की बदलती दुनिया को लेकर मेरी अपनी समझ है कि आज खबरों के बारे में लिखते हुए, चुनते हुए और प्रसारित करते हुए जो सबसे बड़ी समस्या है कि आपको यह यकीन कर पाना, बता पाना मुश्किल हो जाएगा कि किस खबर को किस खेमे में रखें। महज पॉलिटिक्स की खबर कब बॉलीवुड की खबर बन जाती है, स्पोर्ट्स की खबर कब पॉलिटिक्स की खबर बन जाएगी या फिर एक ही खबर में पॉलिटिक्स, इंटरटेन्मेंट, स्पोर्ट्स औऱ एस्ट्रलॉजी का सेंस होगा, इसे समझ पाना चुनौती का काम है। तेजी से बदलती खबरों की दुनिया में पहले के मुकाबले इसे बिल्कुल अलग-अलग कर पाना इतना सहज नहीं रह गया है। इसकी एक बड़ी वजह ज्यादा से ज्यादा खबरों का सॉफ्ट स्टोरी के तौर पर बदल जाना है या फिर इन्फोटेन्मेंट की शक्ल में तब्दील हो जाना है। सीएसडीएस-सराय के लिए रिसर्च करते हुए इसे मैंने पॉलिनेशन ऑफ न्यूज टर्म दिया था और अपने स्तर से विश्लेषित करने की कोशिश की थी कि किसी भी खबर को अगर हम स्पोर्टस के सिरे से पकड़ते हैं तो संभव है उसके अंत सिरे तक आते-आते वो पॉलिटिक्स में जाकर खत्म हो। इसलिए मीडिया पर बात करनेवालों के लिए ये मामला अब इतना आसान नहीं रह गया है कि वो खबरों को लेकर सीधे-सीधे स्पष्ट विभाजन कर दें। ये अच्छा है या फिर बुरा इस बहस में न जाते हुए हमनें सिर्फ इस बात पर चर्चा की कि ऐसे में एक नए पत्रकारों के लिए कितना मुश्किल हो जाता है कि वो स्क्रिप्ट लिखते हुए किस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करे, फ्लाईओवर टूटने पर उसके विजुअल्स को काटे औऱ स्क्रिप्ट लिखे या फिर पहले बोल हल्ला की सीडी जुटाए,चांद और फिजा पर बात करते हुए चंडीगढ़ की फीड पर गौर करे या फिर..ए रात जरा थम-थम के गुजर, मेरा चांद मुझे आया है नजर जैसे गानों को फिट करने की जुगत लगाए। इस तरह से मैं बात करता जाता औऱ बारी-बारी से न्यूज चैनलों की फुटेज दिखाता जाता। मैंने ये भी कहा कि-संभव है ये सारी खबरें, खबरों को परोसने का अंदाज आपको कूड़ा लगे लेकिन क्या ये आपके हाथ में है कि आप तय करें कि हम किस चैनल को देखें औऱ किस चैनल को नहीं देखें और कौन-सी स्टोरी बनाए औऱ कौन-सी नहीं बनाएं।
इसी क्रम में मैं पुण्य प्रसून वाजपेयी की पोटा कानून को लेकर की गयी उस स्टोरी की चर्चा करने लगा, उसके पूरे विजुल्स दिखाए, जिसके लिए उन्हें सम्मान मिला, रवीश कुमार की उस स्टोरी को बच्चों के सामने रखा जिसमें वो गुरुदासपुर,पंजाब के एक ऐसे कॉलेज की चर्चा कर रहे हैं जिस इलाके की लड़कियों ने अपने दम पर खड़ा किया है जहां कोई टीचर नहीं है, क्लासरुम के नाम पर कोई फर्नीचर से लदे-फदे कमरे नहीं है। हमने रवीश की उस लाइन को दोहराया जहां वो कहते हैं कि हम बेहतर शिक्षा के नाम पर शिक्षा को औऱ मुश्किल बनाते जाते हैं..पब्लिक स्कूलों पर सीधा व्यंग्य कर रहे होते हैं। निठारी पर बनायी सम्स की उस स्टोरी की चर्चा कर रहे थे, जब विजुअल्स में एक-एक करके बच्चे गायब हो जाते हैं।
सारे चैनलों के विजुअल्स दिखाने के बाद जैसे ही मैंने इस तरह की खबरों पर बात करनी शुरु की,मीडिया के बच्चों का मिजाज बदल गया। उन्हें लग रहा था कि ये खबरों का विकासक्रम नहीं,बल्कि बिल्कुल एक अलग दुनिया है। एक ही चैनल पर एक-दूसरे से अलग ऐसी दुनिया जिसका कि एक-दूसरे से कोई सरोकार नहीं। सच कहूं, मैं इन बच्चों को ऐसी खबरें बनाने औऱ इनके जैसा बनने की कोई जबरदस्ती की अपील नहीं कर रहा था,मैं इन्हें भारी-भरकम आदर्श से लदे-फदे एप्रोच के बजाय आम पत्रकार बनने की सलाह दे रहा था,ऐसा कहते हुए मैं इनके मिजाज को पढ़ना चाह रहा था। अंत में मैंने सिर्फ यही कहा कि- सारी बातों का निचोड़ सिर्फ इतना है कि आप ऐसे पत्रकार न बनें जो हर दो-दिन चार दिन पर फोन करके अपने दोस्तों से कहता-फिरता है- अच्छा होता,हम एक बार यूपीएसी के लिए चांस लेते, एक बार यूजूसी नेट निकालने की कोशिश करते या फिर चिढ़कर कि इससे बढिया होता कि हम भडुआगिरी करते, यही तो करते हैं हम रोज।
बाहर निकलकर कुछ बच्चों ने फिर से कहा- आपने जो कुछ भी बताया, हमें व्यावहारिक लगा, सच लगा, हमें पता है कि कुत्तों की डाइट पर स्टोरी करनी पड़ सकती है, हमें रावण की ममी खोजने कहा जा सकता है, लेकिन सर पता नहीं क्यों जब भी मैं इन पत्रकारों को स्क्रीन पर देखता हूं तो जोश आ जाता है कि हमें ऐसा ही बनना है। अपने को इन्हीं के जैसा बनते देखना चाहता हूं...आपने कहा न कि ऐसा पत्रकार बनो जो दोस्तों को फोन करके फ्रसट्रेट करने के बजाय इर्ष्या पैदा करे कि- आदमी बने तो बने पत्रकार, नहीं तो कुछ भी बन जाए क्या फर्क पड़ता है।.कुछ-कुछ वैसा ही, कुछ-कुछ ऐसा ही। ....

4 comments:

  1. भैया बहुत कठिन है डगर पनघट की।अच्छा लिखा आपने,और हां अगर वर्ड वेरिफ़िकेशन का टैग हटा दें तो कमेण्ट्स करने मे आसानी होगी।

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  2. पत्रकार कहलाना आसान है ,पत्रकार हो जाना मुश्किल । लेकिन जो नामुमकिन को मुमकिन कर सके , मुश्किलों को आसान करके रहगुज़र तलाशे वो ही तो पत्रकार है ।

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  3. सरिता जी ने बिल्कुल ही सही बात कही. पत्रकारिता ही तो उजाला है, नहीं तो नेता-पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी सब ही तो चोर हैं.

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  4. ये क्या कमेन्ट किया तो जाना कि...
    अब एक कमेन्ट ये वाला भी झेलो.. :)
    आपका लेख पढ़कर हम और अन्य ब्लॉगर्स बार-बार तारीफ़ करना चाहेंगे पर ये वर्ड वेरिफिकेशन (Word Verification) बीच में दीवार बन जाता है.
    आप यदि इसे कृपा करके हटा दें, तो हमारे लिए आपकी तारीफ़ करना आसान हो जायेगा.
    इसके लिए आप अपने ब्लॉग के डैशबोर्ड (dashboard) में जाएँ, फ़िर settings, फ़िर comments, फ़िर { Show word verification for comments? } नीचे से तीसरा प्रश्न है ,
    उसमें 'yes' पर tick है, उसे आप 'no' कर दें और नीचे का लाल बटन 'save settings' क्लिक कर दें. बस काम हो गया.
    आप भी न, एकदम्मे स्मार्ट हो.
    और भी खेल-तमाशे सीखें सिर्फ़ "टेक टब" (Tek Tub) पर.
    यदि फ़िर भी कोई समस्या हो तो यह लेख देखें -


    वर्ड वेरिफिकेशन क्या है और कैसे हटायें ?


    ये मेरा रेडीमेड कमेन्ट है. :)

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