Tuesday 24 March 2009

एनडीटीवी इंडिया ने खोजे अपने भगत सिंह


एनडीटीवी के स्पेशल रिपोर्ट में रवीश कुमार ने देश के युवाओं को दो पाटों के बीच रखकर देखने की कोशिश की। ये युवा वो युवा। स्क्रीन पर बार-बार फ्लैश होता रहा- ऑरकुट और चिरकुट। लेकिन रवीश कुमार जिन युवाओं पर लट्टू होते नजर आए वो न तो ऑरकुटिए हैं और न ही चिरकुट। अगर पिंक चड्डी के जरिए सोच में बदलाव की बात करनेवाली युवा को ऑरकुटिए के तहत शामिल करने की बात की जाए तब ऑरकुट की इमेज सुधरती नजर आती है लेकिन इसका दूसरा पक्ष ये भी है कि ऑरकुटिए ज्यादातर वो युवा है जो खाया-पिया अघाया हुआ है। रघुवीर सहाय के शब्दों में- बड़े बाप के बेटे हैं, जब से पैदा हुए लेटे हैं। जाहिर है रवीश कुमार भी ऐसी स्थिति में नहीं चाहेंगे कि एक अकेले पिंक चड्डी कैम्पेन का हवाला देकर ऑरकुटिए जेनरेशन पर बदलाव करनेवाली पीढ़ी की मुहर लग जाए।..तो फिर स्क्रीन पर बार-बार ऑरकुट और चिरकुट लिखने का क्या सेंस है,ये समझ नहीं आता। फिर इसका भी जबाब नहीं मिल पाता कि रवीश युवा के किस पाट पर लहोलोट हुए जा रहे थे। आलोक पुराणिक के हिसाब से युवाओं की बस दो ही कैटेगरी है या तो ऑरकुट या फिर चिरकुट। तीसरी कोई कैटेगरी नहीं है। लेकिन स्पेशल रिपोर्ट में आलोक की तरह मजाक की गुंजाइश नहीं है और वो भी तब जब देश के युवाओं यानि देश के भविष्य की बात की जा रही हो। जाहिर है रवीश इन दोनों किस्म से अलग एक तीसरे किस्म के युवाओं की बात कर रहे हैं। विभाजन का स्तर पोस्ट की लंबाई बढ़ने के साथ और न बढ़ जाए इसलिए बेहतर होगा कि ऑरकुट,चिरकुट,यहां से फुट,वहां से फुट इन तमाम तरह के युवाओं की कैटेगरी को वो युवा में शामिल कर लें और जिस पर रवीश कुमार लाहोलोट होते नजर आए उन्हें ये युवा में शामिल करके बातचीत को ज्यादा सरल कर लें।
इस लिहाज से युवाओं के दो पाट बन गए, अब बारी-बारी से आएं।

मो.नासिर अपने वक्त को तो सही नहीं कर सका लेकिन घड़ी की मरम्मत करना वखूबी जानता है। वो भी देश का युवा है इसलिए सामाजिक बदलाव के लिए युनिवर्सिटी के ये युवा तिलक ब्रिज के पास हाथ में गिटार लिए आजादी देश में गुलामी की सांस लेने के दर्द को जब गाते हैं,किसानों के देश को टाटा-बिरला का देश बन जाने की बात करते हैं तो उसकी जुबान से भी निकल पड़ता है- दिल दिया है जान भी देंगे,ये वतन तेरे लिए। रवीश फिर सवाल करते हैं, आप ये गाना क्यों गाते हैं। मो.नासिर का जबाब होता है- इन लोगों को गाते देखते हैं तो मेरा मन भी गाने को होता है। ये अलग बात है कि इनके जाने के बाद नासिर फिर घड़ी की सुईयों और चाबियों को दुरुस्त करने में खो जाए। ये युवा किसीली पार्टी से नहीं है,किसी के कहने पर ये सब नहीं कर रहे हैं। गिटार बजाते अभिनव की बाइट है कि कार्पोरेट मीडिया में युवाओं की जो छवि दिखायी जाती है, जो छवि बनती है, वो देश के युवाओं की असली छवि नहीं है। जाहिर है अभिनव अपने प्रयास से देश के युवाओं की असली छवि शामिल करने की कोशिश में लगे हैं। इधर एनडीटीवी लिखता जाता हूं और लिख- लिखकर झूठ करता जाता हूं की तर्ज पर अपने को रेक्टिफाई करने के प्रयास में लगा हुआ है। इन युवाओं को गाते देख, देश की स्थिति पर बोलते देख, धीरे-धीरे लोग जुटने लगते हैं, स्क्रीन पर अच्छी-खासी भीड़ जम जाती है। रवीश इन युवाओं पर लट्टू होते हैं जो लोगों को देश का असली चेहरा दिखाने का माद्दा रखते हैं, उन युवाओं पर लट्टू होते हैं जो मो.नासिर जैसे करोड़ों युवाओं को भूल चुकी देश-रागिनी को फिर से याद करा सकते हैं। रवीश उन युवाओं पर लट्टू होते हैं जो चाहते तो अच्छी नौकरी करके नाम कमा सकते थे, ऐश की जिंदगी जी सकते थे लेकिन उनके बीच इस बात की समझ है कि आज वो जो कुछ भी हैं उसमें सिर्फ मां-बाप का योगदान नहीं है,समाज का भी है इसलिए उन्हें समाज के बारे में पहले सोचना चाहिए।
दिल्ली के साउथ एक्स में कुछ युवाओं ने लाखों रुपये की नौकरी छोड़कर पर्यावरण के लिए काम करनेवाली संस्था को कुछेक हजार रुपये पर ज्वायन किया। इन युवाओं के लिए लंचटाइम का मतलब है पहले संगीत और फिर बातें। गिटार के साथ जो संगीत हमें स्क्रीन पर दिखा उसे देखकर न चाहते हुए भी मन में सवाल उठा- क्या ये गीत गाने के साथ-साथ बातें भी अंग्रेजी में ही किया करते हैं। करते हैं तो इसमें परेशानी क्या है,बदलाव के लिए भाषाई स्तर पर इतना बदलाव तो हम अपने भीतर कर ही सकते हैं। देश के ये युवा पर्यावरण जागरुकता अभियान के जरिए देश को बदलने की कोशिश में जुटे हैं। फेसबुक के जरिए कट्टर हिन्दूवादी संगठनों को लाइन पर लाने की कोशिश में जुटे युवाओं पर रवीश लट्टू होते नजर आए। रवीश का निर्वाचन आयोग से सवाल है कि तो क्या देश के युवाओं को सिर्फ वोट देने या न देने की स्थिति में पप्पू कहना सही होगा। मेरे मन में भी यही सवाल है कि हां पप्पू और न पप्पू के अलावा कोई तीसरी कैटेगरी नहीं बनायी जा सकती है क्या।
देश के वो युवा यानि चिरकुट युवा, ऑरकुट युवा जो मोबाइल फोन पर पब्लिक प्लेस में बातें करते नजर आते हैं, गुड ब्ऑय बनकर सारी बातों को नजरअंदाज करते हुए अपने करियर बनाते हैं। जिसने करियर को जीवन का अंतिम सच मानकर अपने को इतना संकुचित कर लिया है कि वो किसी भी तरह के बदलाव क्या बदलाव की सोच भी पैदा नहीं कर सकता। साहित्य में जिसे साहित्य,संगीत,कलाविहीना जीव कहा जाता है, वो कुछ-कुछ उसी तरह का क्रांतिविहीन जीव है। मध्यवर्ग के इन युवाओं पर मुझे भी गुस्सा आता है। उन्हें दमभर लताड़ने का मन करता है जब चंदे मांगने जाओ कुछ देने के बजाय दुनिया भर की नसीहतें देने लग जाते हैं। मुझे भी उन युवाओं पर तरस आता है जो किसी तरह चंदा तो दे देते हैं लेकिन अपना नाम लिखवाने से मना करते हैं,आपका काम हो गया न, अब मेरा नाम लिखने की जरुरत है,बोलकर निरीह से बन जाते हैं। कैंपस में मजदूरों के लिए चंदा इकट्ठा करने के दौरान मैं भी देश के ऐसे युवाओं को देखकर सिरे से भन्ना जाता- यार, ये अपने मां-बाप के सपनों से उपर उठकर नहीं सोच सकते क्या। करोड़ों की भीड़ में टाइप बनते ये युवा,मुझे भी गुस्सा आता। रवीश को इन पर गुस्सा करने के बजाय व्यंग्य करना ज्यादा सुरक्षित और सहज लगा। युवाओं की इस कैटेगरी को समझने के लिए कैंपस के फुटेज,मोटी तन्ख्वाह के भरोसे एमबीए का कोर्स करनेवाले लोगों को दिखाने के बजाय फिल्मी चरित्रों के माध्यम से अपनी बात रखना ज्यादा मुफीद लगा। रंग दे बसंती,लगान और लेटेस्ट गुलाल की एक लंबी फेहरिस्त है जिसके जरिए देश के वो युवा पर व्यंग्य किए जा सकते हैं और किया भी गया।
कल कैंपस से गुजरते हुए भगतसिंह की बहुत सारी टंगी तस्वीरों पर नजर पड़ गयी। जल्दी में था,फिर भी रुकने-रुकने के अंदाज में चलता रहा। एक कॉमरेड ने हाथ में एक बुकमार्क थमाया। लिखा था- by revolution we mean that the present order of things,which is based on manifest,injustice,must change. मैं इस बुकमार्क के बदले कुछ देना चाहता था,श्रद्धा से ज्यादा आदतवश। साथी ने कहा-तीन रुपये। मेरे पास सिर्फ एक पचास के नोट थे। न तो इससे कुछ कम और न ज्यादा। मैंने कहा, क्या करुं। पीछे से एक कॉमरेड ने कहा- विनीत सिर्फ तीन रुपये थोड़े ही देगा, उससे ज्यादा देगा। पता नहीं, मेरे भीतर ऐसा क्या हो गया,मैंने कहा रख लो। फिर ध्यान आया- अब पटेल चेस्ट से बारह पेज प्रिंट आउट लेने हैं, कैसे लूंगा। मन किया, कहूं बीस रुपये दे दो साथी, कुछ काम है। लेकिन फरि दे दिया तो दे दिया, अब लेना कैसा। आगे बढ़ गया औऱ ख्याल आया,दस का नोट होता तो ज्यादा सही होता,चलो कोई बात नहीं दोबारा आना पड़ेगा।
एनडीटीवी पर स्पेशल रिपोर्ट देखकर लगा कल के पचास रुपये वसूल हो गए। एक भरोसा जगा कि- अगर अच्छे काम किए जाएं तो उसकी नोटिस ली जाती है। मेनस्ट्रीम मीडिया में अभी भी माद्दा है कि वो बदलाव के चिन्हों को खोज ले। मैं खुश था, गदगद होकर फोन किया।
सरजी- देखिए न एनडीटीवी पर स्पेशल रिपोर्ट, क्या आ रहा है। पूरी स्टोरी बतायी और साथ में ये भी कहा कि अगर मिस कर जाते हैं तो भी कोई बात नहीं, मेरे पास इसकी रिकार्डिंग है। उधर से आवाज आयी- क्रांति करनेवालों का भी खानदानी सफाखाना होता है भईया,खैर जरुर देखेंगे। अब मेरे मन में फिर से तूफान मचा हुआ है कि क्या बाकी चीजों के साथ-साथ क्रांति भी सब नहीं कर सकते औऱ सारी आवाजों पर बदलाव की आवाज की मुहर नहीं लगायी जा सकती।

7 comments:

  1. bat spast hona chahiye vineet bhai. yuva varg ko vibhajit kar ke mat dekho.

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  2. रवीश कुमार का आपना एक स्टाइल है। किसी भी चीज़ को दिखाने के लिए वो एक प्रैक्टिल अप्रोच का सहारा लेते हैं। उनकी हर रिपोर्ट एक डॉक्युमेंटरी टाइप रहती है। मैं इस कार्यक्रम को तो देख नहीं सका, आपका लेख बढ़िया लगा। पहली बार आपके ब्लॉग से रू-ब-रू हुआ हूं। आगे भी संपर्क में रहूंगा।
    शुभकामनाएं।

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  3. मु्झे लेख अच्छे से समझ में नही आया.

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  4. यार भाई ये सर और सरजी(जैसा कि तुम्हारी ब्लॉग लिस्ट बोलती है) की भाषा है तो भगत सिंह की बराबरी की लड़ाई नही लड़ी जा सकती।

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  5. आरकुट चिरकुट से आगे बढ़कर
    पिटकुट कुटपिट बनने वाला है
    पीटने वाला पिटने और
    पिटने वाला पीटने वाला है
    आपसी द्वंद्व का यह युद्ध
    निराला है जबकि इसे होना
    चाहिए आंधी, आंधी गांधी की
    या गांधीगिरी की, मुन्‍नाभाई की।

    युवाओं पर अगर नहीं किया व्‍यंग्‍य
    तो वे न करने वालों का व्‍यंग्‍य देंगे बना
    फिर मत कहना कि यह पिटकुट कुटपिट
    कौन सी शैली उपजी है इस जहां में।

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