Thursday 2 April 2009

एडिटिंग मशीन की संतानें: प्रतिलिपि में प्रकाशित


मूलतः प्रतिलिपि अप्रैल 2009 में प्रकाशित

एडीटिंग मशीन की संतानें: विनीत कुमार
वर्चुअल टेरॅ्, टीआरपी और आतंक की आदत


हिंदुस्तान का कोई भी टीवी पत्रकार इस वक्त तालिबान के इलाके में नही है. लेकिन हर दिन तालिबान पर रिपोर्टिंग हो रही है. चेहरे पर नकाब हाथों में बंदूक लिए आगे और पीछे की उजाड़ वादी यह तालिबान है. सब कुछ फिल्मी स्टाइल में दिखाया जा रहा है. कुछ इस तरह से कि शो में केवल गोली - बंदूक की तस्वीर दिखे. आपको लगे कि वाह क्या देख रहे हैं हिन्दी के टीवी रिपोर्टर सीधा तालिबान के गढ़ से रिपोर्टिंग कर रहे हैं.

कभी आपने सोचा है कि तालिबान फार्मूला क्यों बन गया है. दरअसल टीआरपी की दौड़ में टीवी चैनलों पर इस तरह की ख़बरों का दौर आता है एक समय भूत-प्रेत चला तो उसके बाद पौराणिक नायकों के ससुराल से लाकर रसोई तक,पलंग तक ढूंढा गया. आप दर्शकों के लिए जब भी ऐसा दौर होता है तो आप हैरान होकर देखते हैं. इससे पहले कि आप चट जाते हैं. तब लगता है कि ये तो बेकार की न्यूज़ देखते रहे तब तक टीवी का काम हो जाता है. टीवी चैनल वाले भी नए फार्मूले की तरफ़ बढ़ जाते हैं. तालिबान एक नया फार्मूला है. 26 नवम्बर को मुम्बई पर हमला क्या हुआ कि टीवी को फार्मूला मिल गया.[i]

आमतौर पर टेलीविजन में काम करनेवाले लोगों के मुताबिक, टेलीविजन- समीक्षा के नाम पर हिन्दी मीडिया आलोचकों के पास टीआरीपी हासिल करने की कवायद में जुटे चैनलों और पत्रकारों को कोसने के अलावा कोई गंभीर समझ नहीं है। आजकल टेलीविजन न्यूज चैनलों की आलोचना करने की परंपरा सी बन गयी है।[ii] कार्यक्रम चाहे जो भी हों, सबके लिए विज्ञापन और टीआरपी से जोड़कर देखने की एक परंपरा-सी विकसित हो गयी, टेलीविजन समीक्षा के नाम पर एक मुहावरा चल निकला- टीआरपी के लिए टेलीविजन वाले जो न करें। ये धारणा इतनी मजबूत और प्रचलित हो चली है कि कोई व्यक्ति टेलीविजन की आलोचना कर्म में अकादमिक या लेखन के स्तर पर सीधे-सीधे न भी जुड़ा हो तो भी बड़ी आसानी से टेलीविजन को टीआरपी का दास साबित कर सकता है। मीडिया आलोचकों ने विश्लेषण के नाम पर टेलीविजन को टीआरपी की देहरी पर ला पटका है। मीडिया आलोचना का यह रवैया न तो टेलीविजन के लोगों के गले उतरता है और न ही इसमें तटस्थ और सकारात्मक समझ का विकास ही हो पाता है।

लेकिन आज, इसी पैटर्न पर, न्यूज चैनलों की आलोचना कोई मीडिया आलोचक न करके स्वयं एक चैनल कर रहा है। यानि एक खबरिया चैनल ऐसा करके अपने ही उपर कोड़े बरसाने का काम कर रहा है। ऐसा लगता है कि न्यूज चैनल कॉन्फेशन के दौर से गुजर रहा है। एनडीटीवी द्वारा 27 जनवरी 08 को आंतकवाद की खबरों के पीछे के खेल की रिपोर्ट में यह बात स्पष्ट करने की कोशिश की गयी कि सहयोगी न्यूज चैनल टीआरपी की खातिर क्या-क्या नहीं करते हैं। खबर के नाम पर कूड़ा-कचरा प्रसारित किए जा रहे हैं। आतंकवाद के नाम पर ऐसी खबरों का प्रसारण, जिसका दर्शकों से कोई सरोकार नहीं है,जो कुछ भी वो दिखा रहे हैं, वो फील्ड की रिपोर्टिंग नहीं है। पत्रकार यूट्यूब की खानों में खो चुके हैं, एडिटिंग मशीन के बूते ऐसी खबरों को गढ़ा जाता है और धमारेदार आवाज और चौंका देनेवाले लेबलों के साथ खबरों को परोसा जाता है।[iii]

एनडीटीवी की इस खबर पर गौर करें तो दो बातें स्पष्ट हो जाती है, एक तो यह कि न्यूज चैनल इस तरह की खबरों का प्रसारण इसलिए कर रहे हैं कि उन्हें पता है कि देश की ऑडिएंस 26 नबम्बर 08 के मुंबई आतंकवादी हमले से, उसके भय और असुरक्षा से अभी तक उबर नहीं पाए हैं। यानि आतंकवाद से जुड़ी खबरें अभी भी उनके लिए प्रासंगिक है और दूसरा यह कि ये खबरें फील्ड की रिपोर्टिंग का हिस्सा नहीं बल्कि एडिटिंग मशीन की संतान है, जो कि मैनिपुलेटेड है, अविश्वसनीय है। आतंकवाद की यह वास्तविक छवि नहीं है। इस लिहाज से अगर हम रोज शाम प्राइम टाइम पर प्रसारित होनेवाले आतंकवादी खबरों पर विचार करें तो स्पष्ट है कि चैनलों का इरादा हमारे बीच, देर तक ख़ौफ के बने रहने, असुरक्षा के साथ जीने और असंभावित घटनाओं से घिरे रहने का महौल पैदा करना है।

ऐसा करने से न्यूज चैनलों के प्रति लोगों का रुझान लंबे समय तक बना रह सकता है। क्योंकि ज्योतिष की तरह टेलीविजन खबरों के साथ भी लोग तभी तक ज्यादा समय तक जुड़े रह सकते हैं, जब तक उस पर हमेशा असंभावित होने का खतरा पैदा देने वाली खबरें हो, भीतर एक बेचैनी बनी रहे कि आगे क्या होगा। कोई जरुरी नहीं कि ये बेचैनी सिर्फ़ किसी एक घटना या हादसे को लेकर हो। बेचैनी की यह मनोवृति स्थायी तौर पर उनके भीतर जम जाए और वो हर बात के लिए बेचैन हो जाएं। ये काफी कुछ सिनेमाई अंदाज में होता है। सिनेमा दर्शकों के सामने एक ऐसी स्थिति या छवि प्रस्तुत करता है जहां वे खुद को ख़ौफ और भय से भरी दुनिया से रु-ब-रु पाते हैं.[iv]

आतंकवाद से जुड़ी खबरों के प्रसारित किए जाने की स्ट्रैटजी की व्याख्या जिस रुप में की जा रही है,आतंकवाद के नाम पर न्यूज चैनलों में जो कुछ भी दिखाया जा रहा है, उसे काफी हद तक खबरों के बदलने का एक पैटर्न भर माना जा सकता है। लेकिन एक स्थिति यह भी है कि रोजमर्रा के तौर पर आतंकवाद की खींची गयी छवि हमें किसी भी हद तक आतंकित नहीं करती,बेचैन नहीं करती। बल्कि एक आदत पैदा करती है, आतंकवाद को लेकर फेमिलियर बनाती है, हमें इस बात के लिए अभ्यस्त करती है कि हम आतंकवादी घटनाओं को किसी भी समय, किसी भी मनस्थिति में देखने के लिए तैयार हो सकें। इस स्थिति का विश्लेषण करते हुए सूसन सोंटाग का मानना है कि- ये सब कैमरे से उतारी गयी छवियाँ हैं। वे इतनी ज्यादा प्रतिदिन दिखती है कि वे औसत यथार्थ में बदल गयी है। इन छवियों का जिन ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भों में जन्म हुआ, ये अपने उन मूल अभिप्रायों को खो देती हैं और स्वायत्त छवियां बन जाती है। इसलिए इन छवियों के प्रति हमारा विवेकशील और आलोचनात्मक रवैया नहीं,बल्कि उनसे सम्मोहित हो जानेवाला एक रिश्ता बन गया है। छवियां आज वास्तविकता की सिर्फ नकल नहीं है। वे वास्तविकता से ज्यादा महत्वपूर्ण बन चुकी हैं। वे वास्तविकता को नष्ट कर देना चाहती हैं और हम निरंतर उन छवियों के संसार में रह रहे हैं। या सच तो यह है कि हम छवियों के शिकार हैं।[v] यानि हम जिसे सच मान कर देख रहे होते हैं, वो छवियों के अंबार से भरा एक पैकेज भर होता है।

अब, एनडीटीवी की इस खबर, सूसन सोंटाग की इस मान्यता और टीआरपी के खेल के आधार पर चैनलों की आलोचना से अलग एक स्थिति है जिस पर गौर किया जाना जरुरी है। न्यूज चैनलों द्वारा आतंकवादी घटनाओं को दिखाए जाने के पीछे जागरुकता, सामाजिक सच,यथार्थ को उसके वास्तविक रुप में लाने की कोशिश की बात की जाती है। सामाजिक जागरुकता की बात करते हुए आतंकवाद से जुड़ी जो तस्वीरे और खबरें दिखायी जाती है, उससे आतंकवाद की छवि किस तरह की बनती है, इसे समझना जरुरी है।
आगे भी जारी
संदर्भः-
[i] स्पेशल रिपोर्टः एनडीटीवी इंडिया,9.35 बजे रात, 27 जनवरी 08)।
[ii] सुप्रिया प्रसाद,न्यूज डॉयरेक्टर,न्यूज 24, मीडिया खबर डॉट कॉम
[iii] सावधान आ रहा है तालिबान…/आगे बढ़ रहा है तालिबान…तालिबान के बढ़ते कदम…/तालिबान से भारत को खतरा…हो रही है जंग की तैयारी…/तालिबान कर सकता है हमला…तालिबानी मानव बम का खतरा…/भारत का दुश्मन नंबर वन…। (स्पेशल रिपोर्टः एनडीटीवी इंडिया,9ः37 बजे रात, 27 जनवरी 08)।
[iv] रवि वासुदेवन, ख़ौफ़ का उन्मादः सिनेमा की शहरी बेचैनी, मीडियानगर-03 नेटवर्क-संस्कृति, पेज नं-02 2007,सराय सीएसडीएस,,दिल्ली-110054
[v] छवियां वास्तविकता को ख्तम कर देती है-सूसन सोंटाग, अंधेरे समय में विचार, बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध का वैचारिक परिदृश्य(विजय कुमार) पेज-207-08, संवाद प्रकाशन, मुंबई,मेरठ, 2006

No comments:

Post a Comment