Saturday 4 April 2009

एडीटिंग मशीन की संतानें,वर्चुअल टेर्र


प्रतिलिपि के लेख का दूसरा भाग

फिलहाल, मुंबई आतंकवाद के संदर्भ में बात करें तो आतंकवाद और उससे पैदा होनेवाली भयावह स्थिति को दिखाने के लिए कुछ विजुअल्स स्टैब्लिश किए गए जिसे कि लगभग सभी चैनलों ने खबरों के पीछे का बैग्ग्राउंड( क्रोमा) के तौर पर इस्तेमाल किया।

1. होटल ताज की बिल्डिंग से उठती आग की लपटें,

2. हथियारों से लैस,चेहरा ढंके आतंकियों की तस्वीरें

3. चिखती हुई स्त्रियां और ऑडिएंस की तरफ ताकता मासूम

4. बिना जोड़ी के बिखरी चप्पलें

5. खून से लथ-पथ जमीन

6. भयभित,असहाय और इधर-उधर भागते लोग।

7. मरे हुए पक्षी, बेचैन उड़ते हुए पक्षी

8. दो आंखे जिनमें एक ही साथ दर्द, बेचैनी और असहाय हो जाने के कई मिलते-जुलते भाव मौजूद होते हैं।

9. घटना स्थल पर लगातार आग फैलने और धमाके के होने के विजुअल्स

अगर होटल ताज, नरीमन हाउस और होटल ऑबराय को छोड़ दे तो बाकी के विजुअल्स आपको किसी भी आतंकवादी घटना के होने पर मामूली हेर-फेर के साथ दिखायी देंगे। आतंकवादी घटनाओं के विजुअल्स देखते हुए कोई भी आसानी से बता सकता है कि चाहे स्थिति कितनी भी भयावह हो, कुछ भी कवर करने की स्थिति न बनने पाती हो लेकिन आतंकवाद के महौल को स्टैब्लिश करने के लिए इतना सब कुछ दिखाना अनिवार्य है। यानि आतंकवाद की छवि को स्थापित करने के लिए चैनलों के भीतर एक शास्त्र निर्मित है। इस तरह की घटनाओं में विजुअल्स की कमी की वजह से एक ही तस्वीर बार-बार दिखाई जाती है और इससे एक स्थायी छवि निर्मित होती है। इन विजुअल्स के साथ जिन शब्दों का जिसे कि एस्टर्न और स्लग कहते हैं वह भी लगभग निर्धारित होता है। भाषा साफ-साफ दो स्तरों पर बंट जाती है। एक स्तर वो जिसमें आतंकवाद, उसकी स्थिति,उससे बनने वाले हालात को अधिक से अधिक असरदार तरीके से दिखाए जा सकें। बाद में इसमें सरकार की नाकामी, राजनीतिक पेंच, संबद्ध लोगों की बाइट आदि आ जाते हैं, फिलहाल हम उस दिशा में न जाएं तो भी।

और दूसरा स्तर जिसके जरिए जज्बात,भावना,राष्ट्रीयता और इंडियननेस होने के सबूत को प्रस्तुत किए जाएं। शब्दों का इन दो रुपों में प्रयोग मुंबई आतंकवादी घटनाओं में भी किया गया। आतंकवादी घटना के पहले और दूसरे दिनों तक कुछ चैनलों( स्टार न्यूज, इंडिया टीवी) ने इसे अधिक से अधिक भयावह बताने के लिए 9/11 की तर्ज पर 26/11 का प्रयोग किया। इसके पीछे की रणनीति सिर्फ इतनी कि ऑडिएंस पेंटागन के मंजर और उसके अनुभव से इसे जोड़कर देखे। 9/11 आतंकवाद की एक स्थापित छवि है जिसमें किसी एक विजुअल्स के बिना पूरा का पूरा आतंकवादी दृश्य अपने आप उभरकर सामने आ जाता है। उसके बाद आतंक को घंटों में बताया जाना शुरु किया गया। आतंक के 18 घंटे[vi] या फिर आतंक के 37 घंटे[vii]। आतंक को घंटे में बताए जाने से आतंकवादियों की तैयारी और प्रशासन की असफलता की एक तस्वीर हमारे सामने उभरती है। हालांकि बाद में यह अवधि जितनी हो और बतायी जाए उससे जज्बात को उतना उपर तक उठाया जा सकता है कि देश ने आतंकवादियों का मुकाबला कितने घंटों तक किया। इस अर्थ में आप कह सकते हैं कि शब्दों के जरिए टेलीविजन चैनलों द्वारा प्रयुक्त छवि यूनीइमैजिनरी होते हैं जो दो विरोधी पक्षों और विपरीत दशा में एक ही साथ काम में लाए जा सकते हैं। राष्ट्रहित की बात करते हुए आतंकवाद की एक और छवि चैनल द्वारा बनाने की कोशिश की गयी। यह छवि यूट्यूब और एडिटिंग मशीन से बनी छवि से अलग है, यह छवि तस्वीर रहने के वाबजूद देश की सुरक्षा की खातिर नहीं दिखाने की छवि से अलग है। यह छवि बनती है आतंकवादी और एंकर के बीच के सीधे संवाद से।[viii] इस बातचीत का एक अंश है-

एंकर-
आपलोग ऐसा क्यों कर रहे हैं, बेगुनाह लोगों को मारने से आपको क्या मिलेगा?

होटल ताज में छिपा आतंकवादी-
जब लोग बाबरी मस्जिद गिरा रहे थे,उस समय लोगों को इस बात का खयाल क्यों नहीं आया।…. यहाँ हमारे भाई को परेशान किया जाता है, हमें सुकून से सोने नहीं दिया गया। हमारी मां-बहनों को कत्ल-ए-आम दिया गया।[ix]

आतंकवादियों की एक यह भी छवि है जिसे चैनल फोन पर( हालांकि इस फोन की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किए गए) हुई बातचीत के आधार पर निर्मित करता है।

एडीटिंग मशीन से पैदा की जानेवाली वर्चुअल टेर् को समझने के क्रम में सिल्वरस्टोन के टेलीविजन और तकनीक संबंधी विचार पर नजर डाल लेना दिलचस्प होगा। सिल्वरस्टोन का मानना है कि टेलीविजन अपने-आप में एक तकनीक है औऱ यह एक ऐसा तकनीक है जो कि दो प्रकार के अर्थों से जुड़ा हुआ है। इससे पैदा होनेवाले अर्थ एक तो निर्माता और उपभोक्ता के जरिए होता है और दूसरा स्वयं इस तकनीक के द्वारा जो कि प्रसारण और व्यवहार के दौरान पैदा होता है।[x] सिल्वरस्टोन की माने तो सूसन सोंटाग की कैमरे और तकनीक के आते ही घटना की वास्तविकता खत्म हो जाती है की मान्यता को बिल्कुल उसी रुप में मान लेना व्यावहारिक नहीं जान पड़ता। बिना तकनीक के टेलीविजन के होने की बात नहीं की जा सकती। तकनीक की अनिवार्यता ही टेलीविजन या फिर दूसरे संचार माध्यमों को संभव कर सकती है। दूसरी बात कि टेलीविजन से पैदा होनेवाले अर्थ सिर्फ उनके निर्माताओं की सक्रियता से नहीं होती बल्कि स्वयं उसका उपभोक्ता यानि ऑडिएंस भी अर्थ पैदा करने में सक्रिय होते हैं। यहां पर मार्शल मैक्लूहान की यह मान्यता खंडित होती है कि टेलीविजन कोल्ड माध्यम है क्योंकि यह उपभोक्ता को पैसिव बनाता है।[xi] मार्शल मैक्लूहान के बाद टेलीविजन विमर्श में एक अवधारणा तेजी से विकसित हुई जिसके अन्तर्गत ऑडिएंस को भी अर्थ पैदा करनेवाला यानि प्रोड्यूसर के तौर पर समझा गया।[xii]


ऑडिएंस के अर्थ ग्रहण करने और पैदा करने का ही परिणाम है कि उन खबरों की भी खपत होती है, उनकी भी टीआरपी बढ़ती है जिससे कि सीधा सरोकार बहुत ही कम लोगों का होता है या फिर कई बार नहीं भी होता है। सूसन सोंटाग की मान्यता के आधार पर जब लोग ड्राइंग रुम में बैठकर आतंकवाद की खबरें देख रहे होते हैं तो इत्मिनान होते हैं, उनके भीतर एक निश्चिंतता का बोध होता है कि हम सुरक्षित हैं। लेकिन क्या देश और दुनियाभर की ऑडिएंस टेलीविजन को इसी रुप में जानती-समझती है। तकनीकी रुप से सबों के टेलीविजन स्क्रीन एक ही तरह के होते हैं, संभव है एक ही खबर या प्रोग्राम को एक ही साथ लाखों लोग देख रहे हों, लेकिन क्या उनकी मान्यताएं, उनकी सामाजिक स्थिति और समझ एक होती है।[xiii] ऑडिएंस के बीच कई स्तरों की भिन्नता ही खबरों के अर्थ को बदलता है और साथ ही उसके बीच एक निजी संदर्भ पैदा करता है। तालिबान में होनेवाले हमले से हिन्दुस्तान के किसी गांव या कस्बे में बैठी ऑडिएंस को कोई खतरा नहीं है, मुंबई में होनेवाले आतंकी हमले से देश के दूसरे हिस्से में बैठी ऑडिएंस को तत्काल कोई नुकसान नहीं हो रहा,संभव है करोड़ों ऑडिएंस का आहत लोगों से कोई सीधा सरोकार नहीं हो लेकिन खबर तो सब देखते हैं। इसकी बड़ी वजह है कि टेलीविजन अनिवार्यतः एक घरेलू माध्यम है और इसलिए ऑडिएंस उसकी खबरों औऱ कार्यक्रमों के बीच से अपने संदर्भ और अर्थ खोज लेती है.[xiv] यानी आतंकवादी खबरों से अधिक से अधिक लोगों के जुड़ने के पीछे सिर्फ उसके निश्चिंत महौल में खबर की तरह इन्ज्वॉय करना भर नहीं होता है बल्कि उस खबर में स्थानीय खौफ और आंतक के चिन्हों की तलाश करना भी होता है। तकनीक और एडिटिंग मशीन के इस्तेमाल होने से ऑडिएंस इसी संदर्भहीन आतंक के बीच से
अधिक से अधिक स्थानीय संदर्भ खोजने की कोशिश करती है जिसे हम ऑडिएंस के बीच पैदा हुए अर्थ कह सकते हैं।

संदर्भः
[vi] आजतक, 5.07 बजे,27 नबंबर 08
[vii] स्टार न्यूज,4.45 बजे, 28 नबंबर,08
[viii] अपील का असर आतंकवादियों ने की इंडिया टीवी से बातचीत। (इंडिया टीवी,10.08 बजे सुबह,27 नबंबर 08)
[ix] वही
[x] आर सिल्वरस्टोन -लेख, टेलीविजन एंड एवरीडे लाइफः टूवर्ड्स एन एन्थ्रोपोलॉजी ऑफ दि टेलीविजन ऑडिएंस, पुस्तक- पब्लिक कम्युनिकेशनः दि न्यू इम्परेटिव्स, सं- एम फर्गसन, लंदनःसेज,1990
[xi] मार्शल मैक्लूहान(1965),अंडर्स्टैंडिंग मीडियाःदि एक्सटेंशन ऑफ मैन,अध्याय 2 न्यूयार्क, अमेरिकन लाइब्रेरी.
[xii] क्रिस बारकर(2003), दि एक्टिव ऑडिएंस, कल्चरल स्टडीज, पेज नं-325, सेज पब्लिकेशन इं. प्रा.लि.बी-42,पंचशील एन्क्लेव,नई दिल्ली 100017
[xiii] डेविड मोर्ले(2002), टेलीविजन ऑडिएंन्सेंज एंड कल्चरल स्टडीज,पेज नं-203, राउटलेज 11 न्यू फिटर लेन,लंदन
[xiv] नोम चॉमस्की (2006,हिन्दी संस्करण), जनमाध्यमों का माया लोक,अनुवादक-चंद्रभूषण ग्रंथशिल्पी(इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड,बी-7 लक्ष्मीनगर, नई दिल्ली 110092
आगे भी जारी

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