Monday 6 April 2009

एडिटिंग मशीन की संतानें,अंतिम भाग


प्रतिलिपि में छपे लेख का अंतिम भाग

ऑडिएंस आतंकवाद की जिन खबरों में अपने एक निजी संदर्भ की तलाश करती है,उसे खबर प्रसारित करनेवालों के अनुसार अर्थ ग्रहण करें तो इसके दिखाए जाने के पीछे राष्ट्रचिंता और मानवता के स्वर छिपे हैं। नोम चॉमस्की ने ब्राजील तक दूसरे देशों का हवाला देते हुए जो लिखा है कि यहां संचार माध्यमों के बारे में मानकर चला जाता है कि वे सार्वजनिक हित की सेवा के लिए प्रतिबद्ध है,[xv]कमोवेश वही स्थिति भारतीय संदर्भ में भी है। ऑडिएंस जिस स्तर पर खबरों से अर्थ ग्रहण करती है वो निजी होता है, खबरों के प्रसारण के पीछे भी यही रणनीति काम कर रही होती है कि हर खबर की प्रस्तुति कुछ इस तरीके से हो कि ऑडिएंस उसमें अपने मतलब की बात को खोज पाए लेकिन स्ट्रैटजी से अलग इनके तर्क बिल्कुल अलग हैं।

होटल ताज के सामने से कवर करते हुए हमलोग जो भी दिखा या कह रहे थे वह यथार्थ था उसमें कोई ड्रामा नहीं था। आतंकवादी गतिविधियों के शुरु होने के बाद से ही स्टार न्यूज का पूरा का पूरा दफ्तर और टॉप मैनेजमेंट लगातार साठ घंटे तक न्यूज रुम में मौजूद रहा और उस वक्त हममें से किसी के दिमाग में रेटिंग शब्द शायद ही कभी आया होगा।[xvi]

खबर से ज्यादा महत्वपूर्ण है देश की सुरक्षा। देश की सुरक्षा की ।खातिर हम तस्वीरें लाइवें नहीं दिखा रहे हैं। हमारे संवाददाता प्रियदर्शन लाइव रिपोर्ट दे रहे हैं।[xvii]

ये खबर लाइव नहीं है। चैनल जो अपनी टीआरीपी के लिए ज्यादा से ज्यादा लाइव करवेज के लिए परेशान रहते हैं, सरकार की ओर से मिले निर्देश के अनुसार अब लाइव प्रसारण नहीं कर रहे होते हैं। यही काम बाकी के चैनलों ने भी किया।

इस बयान के मुताबिक मुंबई आतंकवादी हमले के दौरान जो कुछ भी दिखाया गया,वो टीआरपी का खेल नहीं था,उसमें राष्ट्रहित की भावना जुड़ी थी। देश और दुनिया के लोगों को यह बताने की कोशिश थी कि कुछ लोग मानवता के खिलाफ कितना गंदे से गंदा षडयंत्र कर सकते हैं। यानि आतंकवाद के मंजर को दिखाने के क्रम में न्यूज चैनलों के पास अपने-अपने दृष्टिकोण,समझ और व्यावहारिक प्रयोग है। यहां आकर आलोचना का यह आधार कि टीआरपी के लिए चैनल कुछ भी कर सकते हैं, टूटता नजर आता है, ऑडिएंस के निजी अर्थ और खबरों के प्रसारणकर्ता के तर्क से पैदा हुए अर्थ के बीच का एकहरापन टूटता है। यहां आकर ऐसा नहीं होता कि ऑडिएंस जिस स्तर पर अर्थ ग्रहण कर रही होती है पूरी तरह वही अर्थ संप्रेषण हो रहा होता है और ऐसा भी नहीं होता कि प्रसारणकर्ता जिसे राष्ट्रहित बता रहे होते हैं, आतंकवाद से जुड़ी खबरों को दिखाने के पीछे यही स्ट्रैटजी पूरी तरह काम कर रही होती है।

इस स्थिति में सिल्वरस्टोन की अर्थ पैदा होने के दूसरे आधार पर गौर करें तो यह भी समझना जरुरी होता है कि संचार से भी अर्थ बनते हैं जिसमें ऑडिएंस की कोई भूमिका नहीं होती। उपरी तौर पर प्रसारणकर्ता की भी कोई भूमिका नहीं होती। कैमरे का सच या फिर कैमरा कभी झूठ नहीं बोलता का मुहावरे के प्रयोग के पीछे बार-बार यही साबित करने की कोशिश रहती है कि जो कुछ भी दिखाया जा रहा है उसके प्रति प्रसारणकर्ता तटस्थ है। खबरों की प्रस्तुति में शामिल लोगों की तटस्थता को स्थापित किए जाने की स्थिति में प्रसारण औऱ तकनीक की भूमिका बढ़ जाती है और ऑडिएंस को बिना कोई मैनिपुलेशन के खबर प्रसारित होने का आभास होता है।

लेकिन यही आकर सबसे बड़ा सवाल पैदा होता है कि तकनीक का आधार लेकर अपने को तटस्थ बताने की रणनीति क्या तर्कसंगत है। आज एनडीटीवी ने आतंकवादी घटनाओं की खबरों को दिखाए जाने के पीछे जिस तरह से आपत्ति दर्ज की है, उसमें तकनीक पर सवार होकर अपने को तटस्थ बताए जाने का फार्मूला कितना विश्वसनीय है, इस पर विचार किए जाने चाहिए। क्या तकनीक और प्रसारण के बीच अपने अनुरुप खबरों का रुख करने की कोई गुंजाइश नहीं होती।

इस संदर्भ में पी.एन.बासंती का मानना है कि मुंबई आतंकवाद की खबरों को जिस तरह से टेलीविजन चैनलों ने दिखाया, खबर को जिस तरह से लोगों के बेडरुम तक पहुंचाया वो रियलिटी शो के रुप में था।[xviii] बासंती खबरों की प्रस्तुति के लिए रियलिटी शो का प्रयोग कर रही हैं, यानी पूरा विश्लेषण इस संदर्भ में है कि खबरों को जिस तरीके से प्रस्तुत किए जाते हैं उससे खबरों के कंटेट से अलग अर्थ पैदा होते हैं। आतंकवादी घटना को देखने के बाद खौफ,असुरक्षा औऱ चिंता के भाव पैदा होने चाहिए लेकिन रोमांच औऱ कौतुहल पैदा होता है। शायद यही वजह है कि देश की ऑडिएंस आतंकवादी घटनाओं को किसी खबर के बजाय आदतन एक कार्यक्रम के तौर पर देखने की अभ्यस्त होती चली जाती है। हार्रर फिल्मों की तरह थोड़ी देर डरकर खुद का विरेचन करती है। संभवतः यही वजह है कि वो इस आदत के बीच डेस्कटॉप पर चले रहे यूट्यूब और चैनलों द्वारा फिर से कैमरे में कैद कर लिए जाने और उस पर कुछ चमकदार लेबल और स्लग लगा दिए जानेवाली खबरों को भी देखकर परेशान नहीं होती, आतंकवाद को खत्म करने के लिए बेचैन नहीं होती और चैनल जिस राष्ट्रीय चिंता का आधार तय करता है, उसे लेकर असहमत नहीं हो पाती।

भारतीय दर्शकों के बीच एक बड़ी सच्चाई ये है कि वो न्यूज चैनलों के जरिए प्रसारित होनेवाली खबरों औऱ घटनाओं को सच मानकर चलती है। इस लिहाज से प्रसारणकर्ता का ये फार्मूला कि कैमरा कभी झूठ नहीं बोलता काम कर जाता है। कैमरा कभी झूठ नहीं बोलता की समझ के नीचे विकसित होनेवाले दर्शकों के लिए ये समझना वाकई मुश्किल काम है कि कैमरे के पहले औऱ बाद भी किस तरह के तकनीकी प्रयोग किए जाते हैं औऱ उससे अर्थ( मतलब भी औऱ टीआरपी भी) पैदा करने की कोशिशें की जाती हैं। यहां पर डेविड मोर्ले की बात पर विचार करना जरुरी है कि ऑडिएंस टेलीविजन के अर्थ को किस रुप में ग्रहण करती है, इससे समझने के लिए उसके परिवेश और मान्यताओं को तो समझना जरुरी है ही इसके साथ ही ये भी समझना जरुरी है कि वो आसपास की तकनीक से किस रुप में जुड़ी हुई है।[xix]

नलिन मेहता ने कैमरे से बनी छवि और ऑडिएंस के उपर इसके असर को जब 2002 के गुजरात दंगे के संदर्भ में देखते हैं, तब इसी कैमरे और माइक के होने से डरे हुए लोग घर से बाहर निकलकर आए और दुनिया के सामने आकर अपनी बात रखी।[xx] इसी टेलीविजन और तकनीक के बीच से पैदा होनेवाली बेचैनी औऱ सवाल से जुड़कर मुंबई आतंकवाद के खिलाफ सड़कों पर उतर आए और टेलीविजन के फुटस्टेप को मानते हुए अपनी बात रखी। इसलिए तकनीक और संचार के बीच से पैदा होनेवाले अर्थ सिर्फ वर्चुअल स्पेस के भीतर भटकनेवाले शब्द भर नहीं होते, उसका रुपांतरण सामाजिक स्तर पर भी होता है। इसलिए एक स्थिति ये भी बनती है कि यह समाज को पहले से अधिक लोकतांत्रिक बनाता है। एसएमएस और फोन कॉल के जरिए इन घटनाओं के विरोध में, लोगों के समर्थन में अपनी बात रखते हैं, वह भी लोकतंत्र का हिस्सा है, इसे चाहे तो टेली-डेमोक्रेसी कहा जा सकता है।

भारतीय दर्शकों के बीच टेलीविजन सहित मोबाइल, कैमरे, इंटरनेट और दूसरे संचार औऱ तकनीक माध्यमों का जितनी तेजी से प्रसार बढ़ रहा है उससे एक निष्कर्ष निकालना आसान हो गया है कि तकनीक को लेकर भारतीय समाज फैमिलियर होता जा रहा है। लेकिन इस तकनीक का उपयोग किस स्तर तक किया जाता है इससे विश्लेषित करना आसान नहीं है औऱ संभव है कि प्रसार को लेकर जो हम हुलस रहे हैं तकनीक आधारित जागरुकता के इस निष्कर्ष पर यह जानकर हम उदास हो जाएं कि इन तकनीकों का इस्तेमाल महज एक उत्पाद के रुप में हो रहा है न कि एक संचार माध्यम के रुप में।

फिलहाल,मुंबई आतंकवाद द्वारा निर्मित छवियों का प्रभाव विश्लेषण करें तो इतना तो स्पष्ट है कि लोग इसे देखकर ठीक वैसे ही निश्चिंत नहीं हुए जिस तरह से निश्चिंत होने की बात सोंटाग करती है। कम से कम मुंबई की ऑडिएंस के संदर्भ में तो नहीं ही कहा जा सकता है। बाद में तो देश के अलग-अलग हिस्सों में भी सक्रियता बढ़ी। सोंटाग जिसे निष्क्रियता बता रही है, वो यहाँ ठीक उलट हाइपर डेमोक्रेसी के रुप में उभरकर सामने आता है। चैनलों को आतंकवाद से डरानेवाली स्ट्रैटजी के बजाय जज्बाती होनेवाली स्थिति की तरफ ले जाता है। इसलिए चैनलों द्वारा निर्मित इन छवियों को जल्दीबाजी में सिर्फ टीआरपी के फार्मूले, सोंटाग के ऑफ फोटोग्राफी के सिद्धांतों के आधार पर विश्लेषित करने के बजाय लोगों के बीच बननेवाले डेमोक्रेटिक-कल्चर को भी संदर्भ के तौर पर देखना अनिवार्य होगा। यह सिर्फ मीडिया विश्लेषण का हिस्सा नहीं बल्कि इसका संबंध समाज के बीच संरचनागत बदलावों, कई दूसरे दृष्टिकोणों, अनुभव और प्रभावों से है। इसलिए छवि निर्माण की प्रक्रिया पर बात करते हुए इन सबका शामिल किया जाना अनिवार्य है। लेकिन नलिन मेहता के कैमरे का असर और राजदीप सरदेसाई की टेलीडेमोक्रेसी की मान्यता को काफी हद तक मान लेने के बाद भी इस बात को समझना जरुरी है कि सारा काम कैमरे का नहीं है। तकनीक के नाम पर हमें कैमरे से आगे एडिटिंग रुम में होनेवाली गतिविधियों को भी समझना होगा। हिन्दी मीडिया में समाज, संरचना, मनोवैज्ञानिक प्रभाव औऱ घरेलू परिवेश के आधार पर विश्लेषण करने की पद्धति एक आकार ले रही है, इसी क्रम में तकनीक, लोगों से उसके जुड़ाव औऱ जागरुकता के आधार पर विश्लेषण करने का दौर शुरु हो जाए तो संभव है कि साइट और यूट्यूब के भरोसे खबरें गढ़नेवाले न्यूज चैनलों को कैमरे कभी झूठ नहीं बोलते का मुहावरा इस्तेमाल करने के पहले दस बार सोचने पड़ जाएं।…
संदर्भ-

[xv] मीडिया मंत्र( जनवरी-फरवरी 08)सं- पुष्कर पुष्प,डायरी पेज- दीपक चौरसिया( एडीटर, नेशनल न्यूज, स्टार न्यूज)
[xvi] आजतक, 7 बजे सुबह, 29 नवंबर 08
[xvii] एनडीटीवी इंडियाःमुकाबला दिसंबर 12, 08 पी.एन.बासंती, डायरेक्टर सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज
[xviii] डेविड मोर्ले(2002), टेलीविजन ऑडिएंन्सेंज एंड कल्चरल स्टडीज,पेज नं-204, राउटलेज 11 न्यू फिटर लेन,लंदन
[xix]नलिन मेहता(2008) इंडिया ऑन टेलीविजन, पेज नं-294,हार्पर कॉलिन्स पब्लिशर्स इंडिया, नई दिल्ली
[xx] वही पेज नं- 257, राजदीप सरदेसाई का मत

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