Friday 8 May 2009

हवा हो जाएगा एनडीटीवी ?


एनडीटीवी इंडिया आजकल बहुत परेशान है। एनडीटीवी इंडिया के लोग बहुत परेशान हैं। एनडीटीवी इंडिया रेगुलर देखनेवाली ऑडिएंस परेशान है। उपरी तौर पर देखने से ऐसा लगता है कि इन तीनों की परेशानियों की अपनी-अपनी वजह है और इसलिए इनका विश्लेषण भी अलग-अलग स्तर पर किया जाना चाहिए लेकिन ऑडिएंस के लिहाज से सिर्फ कंटेंट और काम करनेवाले लोगों के पक्ष से नौकरी को लेकर असुरक्षित महसूस करने जैसे मुद्दे में फंसने के बजाए चैनल की सेहत(इकोनॉमिकल कंडीशन) पर गौर करें तो मामला साफ हो जाता है कि चैनल के भीतर क्यों इतनी अधिक उठापटक मची हुई है।

अब तक एनडीटीवी ने अपनी पहचान जिस-जिस स्तर पर बनायी है,वो उन सबको धीरे-धीरे छोड़ने की स्थिति में आ चुका है। ऑडिएंस के बीच इसकी पहचान औऱ साख इस बात को लेकर बनी है कि ये भाषा और कंटेंट को लेकर बाकी के चैनलों से ज्यादा संवेदनशील रहा है। मीडिया में काम करनेवाले लोगों के बीच इसकी साख इस बात को लेकर रही है कि इसने अपने इम्प्लॉय को बतौर ह्यूमन रिसोर्स के तौर पर देखा-समझा है, उन्हें नए-नए प्रयोग करने से लेकर खुद को समृद्ध करने का भरपूर मौका दिया है। नौकरी के स्थायीपन को लेकर इस चैनल के बारे मेंर यहां तक बात की जाती रही कि इसमें सरकारी नौकरी जैसी निश्चिंतता है। एक आम ऑडिएंस की हैसियत से बहुत अंदुरुनी मामलों में न भी जाएं तो भी सिर्फ स्क्रीन पर आनेवाले एंकरों और रिपोर्टरों को देखकर अंदाजा लगा सकते हैं कि यहां काम करनेवाले बहुत कम ही पत्रकार दूसरे चैनलों में जाते हैं। मीडिया इंडस्ट्री में अब तक यही होता आया है कि जहां जिसे अच्छी और दुगुनी सैलरी मिली वो वहां चले गए। इसे लेकर न तो कोई एथिक्स है और न ही कोई पाबंदी। तर्क बहुत साफ है कि हर इंसान को बेहतर होने के मौके मिलने चाहिए। इसलिए आप देखते होंगे कि बड़े से बड़ा टीवी पत्रकार इधर-उधर कूद-फांद मचाते फिरते हैं। एनडीटीवी में ये स्थिति कल तक न के बराबर ही रही है। पैसे के साथ-साथ एक खास तरह का इलीटिसिज्म पत्रकारों को इस चैनल से बांधे रखा। आप ये भी कह सकते हैं कि एनडीटीवी अकेला ऐसा चैनल रहा है जहां टीवी पत्रकारिता करते हुए भी पत्रकार होने की दावेदारी बनी रहती है। चैनल ने अपनी ब्रांडिंग इसी स्तर पर की है।

लेकिन आज ऑडिएंस से लेकर यहां काम करनेवाले लोगों के बीच भी इस ब्रांड का मिथक टूट रहा है। बेतहाशा छंटनी और स्क्रीन पर बदलती जुबान ये साफ करती है कि अब एनडीटीवी,एनडीटीवी नहीं रहना चाहता है। वो अपने को बदलना चाहता है। उसका ये बदलना किसी पत्रकारिता की शर्तों पर का बदलाव नहीं है बल्कि वो बदलना चाहता है क्योंकि वो अपने को बचाना चाहता है। मौजूदा हालात में उसके लिए सबसे ज्यादा जरुरी है कि वो अपने को इंडस्ट्री में बचाए रखे। वो लगातार आर्थिक रुप से लड़खड़ा रहा है।

चैनल की इकोनॉमिक रिपोर्ट कार्ड पर गौर करें तो मौजूदा स्थिति में चैनल के पास कुल 241 करोड़ रुपये नकद रुप में है जबकि इसकी मार्केट वैल्यू कुल 708 करोड़ रुपये है। इसकी तिमाही रिपोर्ट पर गौर करें तो दिसंबर 08 से मार्च 09 तक इसे कुल 160.30 करोड़ रुपये का घाटा हुआ है। इसके ठीक पहले दिसंबर 08 की तिमाही रिपोर्ट में कुल 125.34 करोड़ रुपये का घाटा हुआ है। इससे भी पहले की सितंबर 08 तिमाही रिपोर्ट पर ध्यान दें तो कुल 119.32 करोड़ रुपये का घाटा हुआ है। अब इन तीनों तिमाही के घाटे को जोड़ दें तो कुल घाटा करीब 404.94 करोड़ रुपये के आसपास बैठता है। लेकिन मजे की बात ये है कि अगर आप इसकी वार्षिक रिपोर्ट और मुनाफे से संबंधित आंकड़े पर गौर करें तो इसे 365 दिन के भीतर 119.80 करोड़ रुपये का मुनाफा हुआ है। इस नफा- नुकासान के आंकड़ों में उलझने से पहले ये जानना जरुरी है कि ये मुनाफा चैनल के टर्नओवर से होने के बजाय अपनी हिस्सेदारी बेचने से हुई है। चैनल ने इस साल में अब तक 642 करोड़ की अपनी हिस्सेदारी बेची है। इसलिए इस स्थिति को मुनाफे की कैटेगरी में रखना सही नहीं होगा। चैनल के तीनों तिमाही रिपोर्टों के आधार पर अगर बात करें तो अगर इसकी आर्थिक स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आए तो आनेवाले तीन-चार तिमाही रिपोर्टों तक ये चैनल हवा हो जाएंगे. एक हद तक इसके संकेत भी मिलने शुरु हो गए हैं। दिल्ली-एनसीआर में ब्रॉडकॉस्ट होनेवाले चैनल मेट्रोनेशन पर ताला लग चुका है। एनडीटीवी इमैजिन जिसने कि लक्स जुनून कुछ कर दिखाने का और रामायण एक अच्छी आदत से अपनी पहचान बनायी, उसके भी जल्द ही बंद हो जाने की खबर जोरों पर है।

इस चैनल ने वो दिन भी देखें हैं जबकि इसके शेयरों की कीमत 482 रुपये तक गयी और उस दिन को भी झेला है जब मात्र 69 रुपये में मामला सिमट गया। कल तक के स्टॉक एक्सचेंज की रिपोर्ट के मुताबिक यह 119.85 रुपये पर जाकर दम बोल गया। चैनल के मामले में जब हम इसके आर्थिक पहलुओं पर बात कर रहे हैं तो ऐसा लग रहा है हम मीडिया विश्लेषण से काफी दूर चले गए। हम पत्रकारिता के बजाए अर्थशास्त्र और मार्केटिंग की दुनिया में खो गए। ऐसा महसूस होना स्वाभाविक ही है क्योंकि अब तक मीडिया समीक्षा के नाम पर हम इसे पूंजीवाद का पहरुआ,बाजारवाद का एजेंट, साम्राज्यावाद का नया चेहरा और भी इसी तरह के भारी-भरकम वैल्यू लोडेड शब्दों का सहारा लेते हुए विश्लेषण करने और पढ़ने के अभ्यस्त रहे हैं जबकि अगर हम मीडिया के भीतर आर्थिक मामलों के तार को समझने की कोशिश करें तो हमारी सारी बहस एक गप्प साबित होकर रह जाती है। इसलिए क्या जरुरी नहीं है कि हम गप्पबाजी छोड़कर उन मसलों को समझें और विचार करें जिसके कारण आज एनडीटीवी जैसा चैनल अब एनडीवी नहीं होना चाहता। वो अपने को बदलना चाहता है इसलिए नहीं कि कोई पत्रकारिता को लेकर नई ट्रेंड शुरु करने की छटपटाहट है बल्कि इसलिए कि वो बदलने के बहाने अपने को बचाना चाहता है।

8 comments:

  1. एक कम्पनी जब खुद को बचाने का उपचार करती है तब उसमें पूँजीवाद नजर आता है, अब यह चैनल किस वाद का अनुसरण कर रहा है?

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  2. जो भी चैनल "मुस्लिमवाद", या कहें कि "हिन्दू-विरोधवाद" चलायेगा, उसका यही हश्र होना है, आखिर कब तक लोग सहेंगे? जो भी "इलीट" होता है वह "सेकुलर" होता है, तो इलीट चैनल भी सेकुलर चैनल ही हुआ ("सेकुलर" शब्द का सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही मतलब होता है, "हिन्दू विरोध"), इसलिये यदि यह चैनल बन्द भी हो जाये तो स्यापा करने वाले कम ही मिलेंगे… तथाकथित "सेकुलरों" से कैसी सहानुभूति?

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  3. एनडीटीवि का ये हाल तो होना ही था. इनका समाचार हमेशा पक्षपात वाला लगता है. दर्शको का मन कसैला हो जाता है. कभी कभी तो ऐसा लगता है की ये किसी राजनितिक दल के mouth piece की तरह काम कर रहे हों. इनके हिंदी के एक दो ऐसे एंकर हैं (एक सज्जन हैं मनोरंजन भारती) एक वाक्य अच्छी तरह पूरा नहीं कर पाते हैं. और उनका राजीनीतिक विश्लेषण सुनिए तो ऐसा लगेगा की मानो कह रहे हो की नेतावों खास कर बी जे पि वालो को एक आध दे ना दें. इतना बड़ा चुनाव और एनडीटीवि चुनावी विश्लेषण का भार इनको कैसे दे दिया? जहाँ इनका टक्कर दीपक, प्रभु, पुण्यप्रसून जैसे लोगो से होगी. अब कांग्रेस की चमचागिरी और मुनाफा दोनों एक साथ कैसे मिल सकता है?

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  4. aaj patrakarita media houses me convert ho chuki hai....

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  5. अरे, एनडीटीवी अभी तक चल रहा है? हम तो सोचते थे कि बन्द हो गया होगा! हमारे इलाके में तो इसे कोई भी नहीं देखता, हम ईलीट जो नहीं हैं ना!

    एनडीटीवी की खबरें एकपक्षीय होती थीं, अब किसी बात को आप लाल या हरा चश्मा पहन कर दिखाओगे तो एक दो दिन तक लोग झेल लेंगे, बाद में तो लात लगा ही देंगे ना! सो लगा दी,

    अच्छा इलीट चैनल था, इतिहास के गर्त में समा जायेगा ये, भगवान इसकी आत्मा को शान्ती दे

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  6. विनीत भाई, कमेंट्स देखकर लग रहा है कि कई लोगों को कल बड़ी अच्‍छी नींद आई होगी।

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  7. कुछ मामलो एनडीटीवी का रवैये से नाराज़ होने के बावजूद भी ये कहा जा सकता है कि यही एक मात्र चैनल है जंहा पत्रकारिता होती है। उसकी इस स्थिति के लिये कुछ हद तक़ वो खुद ज़िम्मेदार है खासकर मार्केट मे बने रहने के लिये अपने मुल्यो से समझौता न करना और कंपीटिशन की दौड मे इसी वज़ह से पिछड जाना।दुःखद है खराब चैनलो की तुलना मे इसका हश्र जैसा आप बता रहे हैं।

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