Thursday 18 June 2009

शैलेन्द्र सिंहः एक सर्जक टीवी पत्रकार का गुजर जाना


आज दिनभर करीब सात-आठ मीडियाकर्मियों से बात करते हुए मैंने महसूस किया कि वो टेलीविजन के वरिष्ठ पत्रकार शैलेंन्द्र सिंह की अचानक मौत की खबर सुनकर रोजमर्रा अंदाज से बिल्कुल अलग ढंग से बात कर रहे हैं। वो उन मसलों औऱ मिजाजों पर बात कर रहे हैं जिनसे व्यक्तिगत तौर पर हमें बचने की अक्सर सलाह देते रहे हैं,भावुक होने से रोकते रहे हैं। लेकिन आज वो खुद उदास हुए बिना,भावुक हुए बिना,लीक से हटकर सोचे बिना अपने को रोक नहीं पा रहे हैं। उनकी बातों को सुनकर एकबारगी तो ऐसा लगा कि सब बेतरतीब किस्म की बातें करने लगे हैं लेकिन नहीं,एक-एक करके सब अपनी जिंदगी का हिसाब-किताब पलटने में लग गए हैं। दिलीप मंडल के शब्दों को लें तो- ये जानकर आश्चर्य होता है कि नून-तेल के चक्कर में एक भावुक कलाकार ने अपने 15 से ज्यादा साल बेमन से बिता दिए (क्या ये हममें में कई लोगों की अपनी कहानी नहीं है)।


शैलेन्द्र सिंह से मेरा सरोकार सिर्फ देश के एक बेहतरीन टीवी पत्रकार के रुप को लेकर नहीं है। उससे भी बड़ी बात है बाजार के दबाब और आउटपुट की आपाधापी के बीच अपने भीतर एक साहित्यकार मन को जिंदा रख पाने की जद्दोजहद,लगातार संवेदनशील बने रहने की जी-तोड़ कोशिशें और सर्जना की पीड़ा को झेलते हुए,डूबते-उतरते हुए जिंदगी से लगातार मुठभेड़ करते रहने का जज्बा। ऐसे शख्स के जाने पर कौन नहीं भावुक हो जाएगा ऐसे में जबकि ये मान लिया जाता है कि टीवी में काम करते हुए कोई भी इंसान सर्जक नहीं रह जाता,एक हद तक संवेदनशील भी नहीं। दोपहर दोबारा दिलीप मंडल की पोस्ट पढ़ने के क्रम में जब किताबों और गजलों की बात आयी तो मुझे अचानक अपने क्लासमेट विनीत सिंह की याद आ गयी जो अक्सर मुझे कहा करता- एक दिन मैं तुम्हें अपने शैलेन्द्र चाचा से मिलवाउंगा,तुम जैसों से मिलकर बहुत खुश होंगे,तुम्हारी तरह उन्हें भी अलग हटकर सोचने,लिखने औऱ करने में बहुत दिलचस्पी है। मुझे तब ध्यान आया कितनी बातें की है उसने शैलेन्द्र सिंह के बारे में। अब सारी बातें एक-एक करके याद आ रही है। फिलहाल अपनी बात न करते हुए उनके अंतरंग साथी दिलीप मंडल की एक संवेदनशील पोस्ट जो शैलेन्द्र सिंह को याद करते हुए टेलीविजन पत्रकार की जिंदगी को रिडिफाइन करती है।


शैलेन्द्र सिंह मौजूदा समय के लिए मिसफिट थे

शैलेंद्र सिंह का जाना ऐसे समय में एक भावुक इंसान का गुजर जाना है जब आपाधापी बहुत ज्यादा है। ठहरकर सोचने वाले इंसानों की जब दुनिया में और खासकर हमारे पेशे में कमी हो, तो शैलेंद्र का गुजर जाना ज्यादा ही तकलीफदेह है क्योंकि वो ठहरकर सोचना चाहते थे। सभी कहते हैं कि शैलेंद्र सिंह हमेशा खोए-खोए से रहते थे। उनकी उपस्थिति इतनी कम इंपोजिंग और कम इंटिमिडेटिंग होती थी, कि कई बार पता भी नहीं चलता था कि वो आसपास हैं। आज तक और स्टार न्यूज के दफ्तर में मैने कई बार उन्हें किसी कोने में बैठे काम करते या यूं ही बैठे देखा। जिसे चैनल की मुख्यधारा कहते हैं वो उन्हें रास नहीं आती थी। वो इसमें रमना चाहते भी नहीं थे।


भाई शैलेंद्र के साथ अपनी तीन संस्थानों में नौकरियां रहीं। इन तीन नौकरियों के बीच बहुत कुछ बदल गया। बदलाव का शिकार मैं खुद भी बना। लेकिन इस बीच शैंलेंद्र उन चंद इंसानों में रहे, जिनमें न्यूनतम बदलाव आए। शैलेंद्र को जानने वाले जानते हैं कि वो कभी भी पत्रकारिता नहीं करना चाहते थे। वो पत्रकारिता की दुनिया में एक भावुक इंसान, एक कलाकर्मी थे, एक शायर और एक मिसफिट पत्रकार थे। आजतक में पहली कुछ मुलाकातों में ही उन्होंने अपना इरादा साफ बता दिया था- मैं तो मुंबई का होना चाहता हूं। मुंबई में स्टार न्यूज के दिनों में भी वो बॉलीवुड में अपने लिए संभावनाएं तलाशते दिखे। महेश भट्ट समेत कई लोगों से वो मिलते भी रहते थे। इससे पहले वो कौन बनेगा करोड़पति के लिए काम कर चुके थे। लेकिन वो प्रोफेशन के मामले में वो अपने मन की जिंदगी भर कर नहीं पाए। नौकरियां बदलकर वो अपने लिए सुकून तलाशने की कोशिश करते रहे। लेकिन ये दुष्चक्र से निकलने का नहीं, उसमें और गहरे धंसने का रास्ता साबित हुआ।
भाई शैलेंद्र के साथ अपनी तीन संस्थानों में नौकरियां रहीं। इन तीन नौकरियों के बीच बहुत कुछ बदल गया। बदलाव का शिकार मैं खुद भी बना। लेकिन इस बीच शैंलेंद्र उन चंद इंसानों में रहे, जिनमें न्यूनतम बदलाव आए। शैलेंद्र को जानने वाले जानते हैं कि वो कभी भी पत्रकारिता नहीं करना चाहते थे। वो पत्रकारिता की दुनिया में एक भावुक इंसान, एक कलाकर्मी थे, एक शायर और एक मिसफिट पत्रकार थे। आजतक में पहली कुछ मुलाकातों में ही उन्होंने अपना इरादा साफ बता दिया था- मैं तो मुंबई का होना चाहता हूं। मुंबई में स्टार न्यूज के दिनों में भी वो बॉलीवुड में अपने लिए संभावनाएं तलाशते दिखे। महेश भट्ट समेत कई लोगों से वो मिलते भी रहते थे। इससे पहले वो कौन बनेगा करोड़पति के लिए काम कर चुके थे। लेकिन वो प्रोफेशन के मामले में वो अपने मन की जिंदगी भर कर नहीं पाए। नौकरियां बदलकर वो अपने लिए सुकून तलाशने की कोशिश करते रहे। लेकिन ये दुष्चक्र से निकलने का नहीं, उसमें और गहरे धंसने का रास्ता साबित हुआ।

टीवी न्यूज चैनलों की तेज बनने की होड़ और टीआरपी की खून पीने वाली जानलेवा दौड़ शैलेंद्र के मिजाज से मेल नहीं खाती थी। ये बात और है कि वो आखिर तक न्यूज चैनलों के ही बने रहे और इस विधा को भी ढंग से साधकर आगे बढ़ते रहे। हालांकि जब भी उनपर बेचैनी हावी होती थी, तो वो चैनल के दफ्तर से बाहर सड़क पर निकल आते थे। मेरे मन में उनकी जो छवि ज्यादा प्रमुखता से बसी है, वो काम में जुटे सिर झुकाए पत्रकार की नहीं, बल्कि सड़क पर चहलकदमी करते एक बेचैन इंसान की छवि है। एक ऐसे इंसान की छवि जो लगभग एक दशक ये सोचता रहा कि जो कर रहा हूं, वो निरर्थक है और यहां से आगे बढ़ जाना है।

ये एक बड़ा सवाल है कि किसी और ही धुन में रमने वाला ये भावुक इंसान न्यूज चैनलों के मारक वातावरण में क्यों बना रहा। डांट-डपट, तीखी तकरार, चैनलों के बीच और उससे कहीं ज्यादा चैनल में काम करने वालों के बीच निर्मम और गला काट होड़ में आप क्यों टिके रहे शैलेंद्र। आप तो खुद को कभी भी खिलाड़ी टाइप नहीं मानते थे। आप खिलाड़ी थे भी नहीं। आप तो लगभग 10 साल पहले ही ये जान चुके थे कि ये आपकी दुनिया नहीं है। हालांकि इस आपाधापी के बीच समय चुराकर शैलेंद्र अपने रचनाकर्म को भी अंजाम देते रहे। उनकी किताब कुछ छूट गया है और जानता हूं जिंदगी से शैलेंद्र को बेहतर तरीके से जाना जा सकता है। शैलेंद्र जानते थे कि वो दरअसल इसी तरह के काम के लिए बने हैं। लेकिन जिंदगी भर ज्यादातर समय वो ऐसा काम करते रहे, जो वो एक पल भी नहीं करना चाहते थे। ये अंतर्विरोध उन्हें परेशान करता था। इसे वो अपने मित्रों से शेयर भी करते थे। ये जानकर आश्चर्य होता है कि नून-तेल के चक्कर में एक भावुक कलाकार ने अपने 15 से ज्यादा साल बेमन से बिता दिए (क्या ये हममें में कई लोगों की अपनी कहानी नहीं है)।

ये दरअसल हमारे मीडियम में काम करने वाले हजारों लोगों की कहानी है, जिनमें शैलेंद्र जैसा एक भावुक इंसान या उसका कुछ हिस्सा बसता है। इसलिए शैलेंद्र की मौत एक सामूहिक दुख का कारण है। इस दुख में हम सब अपना दुख तलाश सकते हैं। शैलेंद्र के साथ दरअसल उनके जानने वाले मुझ जैसे लोगों के जीवन का एक टुकड़ा मर गया है। मेरे लिए ये निजी दुख का क्षण है। शैलेंद्र भाई, आपकी स्मृति आपकी रचनाओं की शक्ल में हमारे बीच रहेगी।

- दिलीप मंडल, संपादक, ईटी हिंदी.कॉम
साभारः मीडिया खबर डॉट कॉम

2 comments:

  1. जितनी दुखद
    उतनी अपनी।

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  2. दुखद! शैलेंद्रको श्रद्धांजलि!

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