Monday 24 August 2009

वाइस ऑफ इंडिया के बहाने जरा सोचिए,कुछ कीजिए


उस समय तक वाइस ऑफ इंडिया की सांसें लगभग उखड़ चुकी थीं, जब साईं भक्त और चैनल के सीईओ अमित सिन्हा इसे मज़बूती के तौर पर खड़े करने की बात करते नज़र आ रहे थे। मीडिया ख़बरों से जुड़ी एक वेबसाइट पर बतौर सीईओ उन्होंने कहा कि मैं साईं का भक्त हूं और मुझे उन पर पूरा भरोसा है, सब ठीक हो जाएगा। जाहिर है, उस समय अमित सिन्हा ने चैनल से जुड़े लोगों को जो भरोसा दिलाया, वो एक सीईओ की हैसियत से ज़्यादा श्रद्धा में जकड़े एक भक्त की भावुकता से ज़्यादा कुछ भी नहीं था। जिन लोगों को लगता है कि उनका जीवन श्रद्धा, विश्वास और धार्मिक मान्यताओं के आधार पर तय होते हैं, उन्हें अमित सिन्हा की बात पर भरोसा करने में रत्तीभर भी संदेह नहीं हुआ होगा और वो इस इंटरव्यू के पढ़े जाने के बाद से ही राहत महसूस करने लगे होंगे। वैसे भी देश के भीतर एक खास तरह की जनता हमेशा से मौजूद है जो बाबा, पुजारी, भगवान और पीर-फकीरों के प्रभाव से कोढ़ी, लाचार और अपाहिज को रातोंरात चंगा होते देखते आये हैं। अपनी इसी समझदारी के बूते पर अमित सिन्हा ने सीईओ के तौर पर एक-दो लोगों की जिंदगी नहीं बल्कि पूरा का पूरा एक चैनल ही चंगा करने की जिम्मेवारी अपने आराध्य पर डाल दी। अगर अमित सिन्हा के भीतर प्रोफेशनल एप्रोच होता, तो वो साईं मिलेनियर नाम से दूसरा चैनल खोलने के बजाय मौजूदा चैनल को दुरुस्त करने का काम करते। इस बात को समझ पाते कि दिन-रात साधना और आध्यात्म की बात करनेवाले चैनल भी बाज़ार की शर्तों पर चलते हैं, उसे कोई बाहरी शक्ति चंगा करने नहीं आती। नहीं तो अब या तो ये मानिए कि सारी गड़बड़ी उस आराध्य की है, वो अब समर्थ नहीं रह गये कि कोढ़ी को चंगा कर सकें या फिर अमित सिन्हा को इस पूरे प्रकरण के लिए जिम्मेवार मानिए कि उन्होंने सैकड़ों मीडियाकर्मियों की जिंदगी से खिलवाड़ किया है और भक्त होकर आस्था की सत्ता के आगे ढोंग रचने का काम किया है। ये मामला एक चैनल का है] इसलिए बाकी के चैनल कवरेज करने के बावजूद भी चुप्पी साधे बैठे हैं। नहीं तो दूसरी स्थिति होती तो ये पूरा मामला आस्था और कल्याण से जुड़ी स्टोरी एंगिल को लेते हुए हम ऑडिएंस के लिए एक के बाद एक पैकेज बनकर सामने आते। बहरहाल…

वेबसाइट पर इंटरव्यू पढ़ने के बाद मैंने अमित सिन्हा को एक मेल किया और सीधे तौर पर कहा कि एक पत्रकार होने के नाते ये उचित नहीं है कि आप अपनी आस्था, विश्वास और राजनीतिक अवधारणा को सार्वजनिक स्तर पर किये जानेवाले फ़ैसले का आधार बनाएं। बेहतर हो कि आप पत्रकारिता के मानकों और उनकी शर्तों के हिसाब से काम करें। मेल का कोई जवाब नहीं आया और वेबसाइट पर इस चैनल के विज्ञापन की चमक फीकी पड़ने के साथ ही बात आयी-गयी हो गयी। आज वॉइस ऑफ इंडिया की जो स्थिति है, वो आपके सामने है। मुझे तो पहली बार पढ़ कर हैरानी हुई कि इस चैनल के पास जेनरेटर चलाने के लिए पेट्रोल तक के पैसे नहीं हैं, चैनल ब्लैक आउट हो गया है। एक वेबसाइट ने जब इस मामले में मेरी राय जाननी चाही, तो मैंने साफ तौर पर कहा कि जो भी लोग चैनल चला रहे हैं, दरअसल उनके पास कोई स्ट्रैटजी नहीं है। आज अगर चैनल चला रहे हैं, उसमें घाटा होगा तो सॉफ्ट लोन के लिए जुगत भिड़ाएंगे और अगर सफल नहीं हुए तो टायर की दुकान खोल लेंगे, पूरे मामले से पल्ला झाड़ देंगे। आज किसी भी मीडिया संस्थान का खुलना और अंत में हांफ-हांफ कर बंद हो जाना कितना आसान हो गया है। लेकिन इन सबके बीच पत्रकारों की जिंदगी का क्या होगा? सच पूछिए तो नोएडा की सड़क पार करते हुए और फोन पर बात करते हुए मैं एक घड़ी के लिए उन पत्रकारों के बारे में सोच कर बौखला गया जो पैकेज-दर-पैकेज के लिए कूद-फांद मचाये रहते हैं। मीडिया मालिक आज आश्वस्त हो गये हैं कि पैसा फेंकने पर देश के किसी भी पत्रकार को पालतू बनाया जा सकता है और उसे दूह कर टीआरपी के दूध निकाले जा सकते हैं। अगर वो दुधारू साबित नहीं होता है, तो गर्दन पकड़ कर बाहर निकाला जा सकता है। ये है आज देश के एक पत्रकार की हैसियत, दुनिया भर में हक की लड़ाई लड़नेवाले पत्रकारों की हकीकत, मैनेजमेंट की ओर से धमकियां सुननेवाले खट्ट-खट्ट कीबोर्ड बजाने और गर्दन की नसें फुला कर पीटीसी देनेवाले एडिटर और रिपोर्टर की असली औकात।

किसी पत्रकार के बच्चों का स्कूल से नाम कट गया, कोई पत्रकार अपनी पत्नी को खर्च से बचने के लिए उसके मायके पटक आया है, किसी ने पान-बीड़ी पर कटौती करके छोटे झोले में सब्जी दूध लाना शुरु कर दिया है। आपको ये सब सुनकर कैसा लगता है? क्या सिर्फ उनके प्रति संवेदना पैदा होती है, रहम खाकर कुछ मदद करने का मन करता है। क्या मेरी तरह आपके मन में भी घृणा, अफसोस, दया, सहानुभूति और गुस्सा एक साथ नहीं पनपता? लगता है कि इससे तो अच्छा होता वो बदहाल होकर भी अपने हक की लड़ाई लड़ने की स्थिति में होते, प्रोफेशन के स्तर पर लोगों के लिए हक की लड़ाई लड़ने के नाम पर स्वांग तो करते ही रहते हैं। मीडिया मालिकों के बीच इस मानसिकता को किसने मज़बूत किया है कि किसी भी पत्रकार की कोई आडियोलॉजी नहीं होती, जितनी मोटी रकम दोगे उतना ही रिटर्न देगा, बाकी के सारे लोग कीबोर्ड के मजदूर हैं, दो-चार पांच हजार बढ़ाते रहो, मन लगाकर काम करते रहेंगे। नये लोग मरे जा रहे हैं मीडिया में काम करने के लिए। उनके हाथ बेताब हैं माइक थामने के लिए। नतीजा, चार-चार महीने फ्री में इंटर्नशिप करने को तैयार हैं। दो-दो साल तक बिना किसी इन्क्रीमेंट के चौदह घंटे-सोलह घंटे खटता जा रहा है। अब कोई ये दलील देने लग जाए कि वो सामाजिक बदलाव के लिए इस प्रोफेशन में आया है, तो बेहतर है कि आप कोई और बकवास सुन लीजिए, इस ओर कान मत दीजिए। वॉइस ऑफ इंडिया के हवाले से अगर आप मीडियाकर्मियों की स्थिति पर गौर करें तो इनकी स्थिति गर्दन झुका कर पत्थर फोड़नेवाले मज़दूरों से भी गयी-गुजरी है। उस मज़दूर के सामने संभव है कि बेहतर दुनिया की तस्वीर साफ न हो और हो भी तो पाने के आधार की जानकारी न हो लेकिन मीडियाकर्मी के पास सब चीजों की जानकारी होते हुए हाथ रहते लूला है, ज़ुबान रहते गूंगा है, आंख रहते कुछ भी न देख पाने की स्थिति में है। वो दूसरों के लिए चाहे कुछ भी लिख दे, दिखा दे अपने लिए उसके पास न तो शब्द हैं और न ही विजुअल्स।

इधर देखिए। एक औसत आदमी भी पान-बीड़ी, परचून और दूध-दही की दूकान खोलता है, चाट-गोलगप्पे के खोमचे लगाता है, उनके पास स्ट्रैटजी होती है। उन्हें पता होता है कि कितनी लागत है और कितना प्रॉफिट है। एक-एक चीज़ पर बारीकी से विचार करता है। लेकिन करोड़ों रुपये की लागत पर चलनेवाले चैनल को देखकर लगता है कि उनके पास सामाजिक बदलाव को लेकर कोई विजन तो नहीं ही है, चैनल को बनाये रखने का भी कोई प्लान नहीं है। जब तक चला तो चला, नहीं तो बेतहाशा छंटनी करो, लोगों को हाथ-पैर रहते अपाहिज कर दो या नहीं तो फिर अपने घाटे की भरपाई के लिए सरकार से जुगाड़ करके लोन लो, भूत-प्रेत, ढिंचिक-ढिंचिक स्टोरी और खबरों के पीछे पानी की तरह पैसे बहाओ। न तो कोई हिसाब लेनेवाला है कि किसका पैसा है, आम आदमी की गाढ़ी कमाई को कोई ऐसे कैसे बहा सकता है। देश की जिस जनता को कफ सिरप चाहिए, उसके पैसे से स्वर्ग की सीढ़ी क्यों खोजे जा रहे हैं? कहीं कोई सवाल नहीं, कोई हलचल नहीं। सब चल रहा है। इस पक्ष पर अगर कोई काम करे और तथ्यों को सामने रखे तो अंदाजा लग जाएगा कि चीख-चीख कर खबरों को पेश करनेवाले चैनल, समाज को झक-झक सफेद करने का दावा करनेवाला मीडिया आम आदमी के लिए किस तरह विष घोलने का काम करता है।

वॉयस ऑफ इंडिया की घटना मीडिया इंडस्ट्री के भीतर सुलगनेवाली ज्वालामुखी का धुआं भर है, आगे की स्थिति और ज्यादा खतरनाक होने जा रही है। सरोकारों से कटकर हमें क्या लेना-देना के अंदाज में मीडिया के भीतर जो लोग भी काम कर रहे हैं। उन्हें अभी ये समझ में भले ही नहीं आ रहा हो कि आनेवाले कल के लिए, वो अपने लिए मौत की डमी तैयार कर रहे हैं लेकिन एहसास करना होगा कि हक की लड़ाई के मोर्चे पर वो बिल्कुल अकेले हैं। विदर्भ के किसानों की तरह उन्हें अकेले आत्महत्या करनी होगी जिसके ऊपर शायद ही सामूहिक रुदन हो। इसलिए ज़रुरी है कि स्वार्थ और हक के फर्क को समझने की कोशिश में वॉयस ऑफ इंडिया के भीतर जो मीडियाकर्मी जुटे हैं, उनकी आवाज़ को बुलंद करें और दलालों से मुक्त होकर दलाल संस्कृति की पत्रकारिता को खत्म करने की कोशिश करें। यहां से दुनिया भर के लोगों के पक्ष में लड़ाई लड़ने का ढोंग रचनेवाले मीडिया के विरोध में हमारी लड़ाई शुरु होती है।....

मोहल्लाlive पर प्रकाशित

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