Saturday 12 September 2009

कार्पोरेट मीडिया के ध्वस्त होने के दिन शुरु,फर्स्ट फेज वीओआई



वाइस ऑफ इंडिया के ब्लैकआउट होने के बाद अंदर की खबर सार्वजनिक करने और अपने हक की लड़ाई में हम जैसे लोगों का नैतिक समर्थन जुटाने के इरादे से इस चैनल के मीडियाकर्मियों ने long live voi नाम से एक ब्लॉग बनाया जिसे कि बाद में समझौते के आसार देखकर बंद कर दिया। अभी क्लिक किया तो ये फिर से एक्टिव है। इस ब्लॉग ने कई ऐसी बातें प्रकाशित की जिससे हमें यहां बैठे-बैठे ही चैनल के भीतर की कई सारी गड़बड़ियों और इसके खोखले होते जाने का अंदाजा लगने लगा। लेकिन ब्लॉग पर आयी दो बातों ने मुझे सबसे ज्यादा परेशान किया। एक तो ये कि यहां न्यूज रुम में आरती की थालियां घुमायी जाती है और दूसरा कि ब्लैकआउट और कई महीनों से पैसे न मिलने की स्थिति में मीडियाकर्मियों को अपने बच्चों की स्कूल फीस देनी भारी पड़ रही है,खर्चे में कटौती लाने के लिए वो अपनी पत्नी को मायके भेज दे रहे हैं।

मेरी अपनी समझ है कि देश का चाहे जो भी न्यूज चैनल हो उसे हर हाल में सेकुलर होना चाहिए। इस बात का अंदाजा हमें है कि जिन मान्यताओं और विश्वासों से हमारा कभी कोई सरोकार नहीं रहा है,हमारे जैसे कई लोग अगर वहां मौजूद रहे होंगे जिन्हें कि ये सब कुछ कमजोरी में अपनाया जानेवाला पाखंड लगता हो वो काम करते वक्त कैसे असहज महसूस करते होंगे। नैतिक रुप से किसी भी संस्थान को ये अधिकार नहीं है कि वो अपनी मर्जी की मान्यताओं और धार्मिक विश्वासों को अपने यहां काम कर रहे लोगों पर थोपने की कोशिश करे। मैंने लेखन के स्तर पर इस रवैये का विरोध किया और इसके साथ ही चैनल के सीइओ अमित सिन्हा के उस वक्तव्य का भी जिसे कि एक न्यूज पोर्टल ने उनके इंटरव्यू प्रकाशित करने के दौरान किया- वो साईं के भक्त हैं और उन्हें पूरा भरोसा है,सब ठीक हो जाएगा।..आज ये चैनल बंद है, सैंकड़ोंमीडियाकर्मी सड़कों पर आ गए हैं,उनकी जिम्मेवारी लेनेवाला कोई नहीं है।.. मैंने तब भी कहा कि चैनल धार्मिक विशेवासों के बूते नहीं,मार्केट स्ट्रैटजी के दम पर चलते हैं और अमित सिन्हा को चाहिए कि वो एक भावुक भक्त के बजाय एक प्रोफेशनल की तरह सोचें औऱ काम करें। मेरी इस बात पर चैनल के ही एक एंकर-प्रोड्यूसर को इतनी मिर्ची लगी कि उन्होंने संजय देशवाल,एक फर्जी नाम से हम पर बहुत ही बेहुदे और अपमानजनक तरीके से कमेंट किया। हम पर आरोप लगाए कि हमें कुछ भी पता नहीं है,हम लिखने के नाम पर बकवास कर रहे हैं,इस मामले में हमें कुछ भी बोलने की औकात नहीं है। आज उनकी महानता स्वीकार करते हुए हम अपील करते हैं कि रोजी-रोजगार छिन जानेवाले सैकड़ों मीडियाकर्मियों को लेकर आपके पास जो जानकारी है,संभव हो तो उनके पक्ष में या फिर हमेशा की तरह अपने मालिक के पक्ष में कुछ तो करें। ये अलग बात है कि अगले ही दिन उन्होंने करीब पन्द्रह मिनट तक मुझसे फोन पर बात की और अलग-अलग तरीके से अपने को जस्टीफाय करने की कोशिश की कि यार हमें मालिक के पक्ष का तो ध्यान रखना ही होता है न। बात भी सही है कि अगर रोटी की जुगाड़ मालिक के रहमो करम पर हो रही है तो वो हमारा पक्ष क्यों लेंगे या फिर उन मीडियाकर्मियों का पक्ष क्यों लेंगे जिन्हें अगले महीने बैंकवाले नोचने आएंगे,सुबह से खटनेवाली उनकी पत्नी के दोपहर थोड़ी देर तक सुस्ताने के समय ही कॉल वैल बजा-बजाकर उसका जीन हराम कर देंगे। ये मालिक के प्रति वफादारी ही तो है कि तथ्यों को ताक पर रखकर हम जैसे लोगों को दमभर लताड़ो,हमें सार्वजनिक तौर पर जलील करने की कोशिश करो और रात होते ही थोड़ी -बहतु बची जमीर जब अंदर से धक्का देने लगे तो फोन करके जस्टिफाय करने लगो,अपने को मजबूर बताओ....अब तक दर्जनों लोगों को फाड़ देने,निपटा देने का रेफरेंस दो।

आपको ये सब पढ़-सुनकर हैरानी हो रही होगी न कि ग्लोबल स्तर पर खबरों को बांचने वाला मीडियाकर्मी कितना व्यक्तिगत स्तर पर आकर सोचता है,व्यवहार करता है जहां चार सौ से भी ज्यादा अपने सहकर्मियों के दर्द के आगे उसे अपने मालिक के प्रति वफादार और प्रतिबद्ध बने रहना ज्यादा जरुरी हो जाता है। आप यहीं से सोच सकते हैं कि चैनलों की बाढ़ और बिग मीडिया के बीच मीडियाकर्मियों का कद कितना छोटा होता चला गया है,कितने बौने हो गए वो कि मालिक की एक घुड़की के आगे कहीं भी समा जाएं।

मीडिया कंटेंट पर जब भी मैं मीडिया से जुड़े लोगों से बात करता हूं उनका एक ही तर्क होता है वो टीआरपी के आगे नहीं जा सकते। उनके पास बाकायदा कई ऐसे रेफरेंस होते हैं जो ये साबित करते हैं कि टीआरपी के आगे गए तो मारे जाओगे। उन्हें हर हाल में इसी खांचे के भीतर रहकर सोचना होगा। इस बात को मैं भी मानता हूं कि टीआरपी का ये चक्कर हमेशा खबरों को बकवास की तरफ नहीं ले जाता,उसमें एक हद तक सरोकार नहीं भी सही तो खबर को खबर बने रहने की गुंजाइश रहती है। दर्जनों ऐसे मीडिया समीक्षक हैं जो टीआरपी के इस खेल को लेकर चैनलों को कोसने का काम करते हैं लेकिन इस टीआरपी को अगर आप देखें और मीडिया संस्थानों के बीच जो कुछ भी चल रहा है वो दरअसल मालिकों के रहनुमा हो जाने का एक प्रोफेशन जुमले से ज्यादा कुछ भी नहीं है। ईमानदारी से अगर टीआरपी ही चैनल के चलने और बने रहने का पैटर्न हो तो मुझे नहीं लगता कि ऐसी परेशानियां हो जो कि आज किसी के चैनल के बंद हो जाने,सैकड़ों मीडियाकर्मियों के बेरोजगार हो जाने और किसी चैनल के चलाए जानेवाली कंपनी पर छापा पड़ने की घटना के तौर पर सामने आ रहे हैं। दिक्कत सिर्फ टीआरपी के खेल से नहीं है और न ही विज्ञापन बटोरने की कलाबाजियों को लेकर है। पूरी मीडिया इंडस्ट्री के भीतर दिक्कत इन सबसे अलग और सबसे ज्यादा खतरनाक है।

ये मीडिया इन्डस्ट्री का अब तक का शायद सबसे खतरनाक दौर है। ये इन्डस्ट्री के कुछेक लेकिन प्रभावशाली मीडियाकर्मियों के एक का दो,दो का चार बनानेवाले पूंजीपतियों को सब्जबाग दिखाने का खतरनाक दौर है। अगर कोई मीडियाकर्मी इस दम से कहता है कि आप पैसे तो लगाइए,हम सब देख लेगें तो आप अंदाजा लगाइए कि वो चैनल को बनाए रखने में किस-किस स्तर पर मैनेज करने का काम करेगा। पूंजीपति और मीडियाकर्मी के बीच जो एक तीसरी जमात तेजी से पनप रही है वो है उन गिद्ध मीडियाकर्मियों की जिनका चरित्र पूंजीपतियों का है सामाजिक स्तर की पहचान मीडियाकर्मी की है। सामाजिक तौर पर वो मीडियाकर्मी हैं जबकि प्रोफेशनली वो मालिकों का प्रतिनिधित्व करते हैं। समय के हिसाब से अगर सारे मीडियाकर्मियों की तरक्की होती रही तो एक दिन सब के सब इसी जमात के हिस्से होंगे। ईंट,पत्थर और सीमेंट से जोड़कर दबड़ेनुमा फ्लैट जिसे कि बाजार सपनों का आशियाना कहता है,बनाकर बेचनेवाले लोग जब इस प्रोफेशन में पैसे लगाते हैं तो आपको समझने में परेशानी नहीं होती कि मीडिया कितना तेजी से धंधे में तब्दील हो रहा है। आपको विश्वास न हो तो चले जाइए किसी चैनल के न्यूज रुम या असाइनमेंट डेस्क पर। वहां आपको जो शब्द सुनाई देंगे,खबरों के साथ जो लेबल लगे मिलेंगे उससे आपको समझ आ जाएगा कि मीडिया की तस्वीर असल में क्या बन रही है। मैं बाकी के मीडिया समीक्षकों की तरह इसे भारतेन्दु युग की पत्रकारिता से जोड़कर नहीं देखता,मैं मानकर चल रहा हूं कि इसे प्रोफेशन ही होना चाहिए। इसलिए बात-बात में इसके पीछे सरोकारों की उम्मीद नहीं करता। टाटा स्काई के तीन सौ रुपये देता हूं,मुझे खबर मिले,मनोरंजन हो जाए,बस हो गया अपना काम। लेकिन कहानी सिर्फ खबरों को दिखाने,छुपाने,बदलने और बकवास करने की नहीं,मीडिया के भीतर उन आवाजों के लगातार दम तोड़ देने की है जिसमें गलत के आगे प्रतिरोध की ताकत होती है,बेहतर करने की गुंजाईश होती है। मीडियाकर्मियों की ये जमात उस आवाज को,उस उम्मीद को लगातार ध्वस्त करने का काम कर रहे हैं।

यहां आकर बस इतना कहना चाहता हूं कि- महानुभावों, आपने टीआरपी के नाम पर जो गंध फैलाया है। मीडिया को पहले मिशन से प्रोफेशन,फिर प्रोफेशन से धंधे की दहलीज पर ला पटका है,उसके बीच एक बार अपने को परखकर देखिए। आप मत दीजिए सरोकारों की खबरें,विदर्भ के मरते किसानों की खबरें। आप टीआरपी की ही कंठी-माला पहने रहिए लेकिन कम से कम अपने मालिकों के तो बने रहिए। सब्जबाग दिखाते हैं तो अपने भीतर कूबत पैदा कीजिए कि टीआरपी की इस दौड़ में आगे जाएं,चाहे जहां से भी हो,चैनल को मुनाफे पर ले जाएं। कोई एक तरह से दुरुस्त तो हों। आप मेरे नहीं रहे और न मैं ऐसा होने की अपील करता हूं लेकिन अपने मालिक के तो हों ताकि हमें भी अपने उपर ग्लानि हो कि हम बेकार इन्हें गाली देते हैं,ये तो ठीक ही मुनाफा बना रहे हैं। अगर ये मुनाफा नहीं दिखाएंगे तो चार-पांच सौ इनसे जुड़े मीडियाकर्मियों की रोटी छिन जाएगी। वैसे भी सफल होने की स्थिति में गड़बड़ियां फैलाने की स्थिति में भी आप नजरअंदाज कर दिए जाएंगे। कंधार प्रकरण के मॉडल पर हम चार-पांच सौ पत्रकारों के आगे देश की चालीस करोड़ ऑडिएंस के सरोकारों को ताक पर रखने को तैयार हैं,आप कुछ तो कीजिए।...लेकिन ये कब तक चलेगा कि आपके मालिक मुनाफा न देने पर आपको धोखेबाज समझते रहें और इधर एक ही साथ चार-पांच सौ मीडियाकर्मियों के बेरोजगार हो जाने पर भी किसी भी चैनल या अखबार में एक लाइन तक न लिखी जाए। आप तो अंत में परेशान होकर किसी और चैनल में,किसी और उंचे पदों पर चले जाएंगे लेकिन औसत दर्जे पर काम करनेवाले मीडियाकर्मियों की सांसे जो अटकती है उसके प्रति कौन अकाउंटेबल होगा..जरा सोचिए।

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