Tuesday 27 October 2009

नए टीवी सीरियलःस्त्री-चिंता या छलना का पुनर्पाठ



मूलतः प्रकाशितः हंस,स्त्री विमर्शः अगला दौर स्मृति प्रभा खेतान
संपादकः राजेन्द्र यादव,अतिथि संपादकः अर्चना वर्मा,बलवंत कौर
मूल्यः35 रुपये/

भारतीय टेलीविजन में पिक्चर ट्यूब के दम पर पैदा की जानेवाली उत्सवधर्मिता के बीच पहले बालिका वधू और फिर उसका अनुसरण करते हुए उतरन,लाडो न आना इस देश में और अगले जनम मोहे बीटिया ही कीजौ जैसे दर्जनों समस्यामूलक सीरियलों के प्रसारण ने मौजूदा टेलीविजन विश्लेषण के लिए एक नया संदर्भ पैदा किया है। हालांकि समाज विज्ञान के लिहाज से इन संदर्भों में नया कुछ भी नहीं है लेकिन पिछले सात-आठ सालों में टीवी सीरियलों में सास-बहू चरित्रों की अतिशयता ने जहां इसे सास-बहू के प्रतिशोध,घरेलू झगड़ों औऱ विवाहेतर संबधों का पर्याय बना दिया,उच्च मध्यवर्ग के चरित्रों के बीच आए दिन की बदलती जीवन शैली ,जूलरी और पोशाकों ने इसे स्त्री-फैशन का संदर्भ कोश भर बनाकर छोड़ दिया,ऐसे में ये संदर्भ अपने आप ही अप्रासंगिक होते चले गए। इन सीरियलों से गुजरते हुए आप कभी भी स्त्री के वर्गीय चरित्र,घरेलू हिंसा एवं श्रम और बदलती सामाजिक संरचना के बीच स्त्री जैसे सवालों पर सोच नहीं सकते। सास-बहू सीरियलों ने स्त्री की छवि और उसकी उपस्थिति के दायरे को जितना सीमित किया है उसी अनुपात में विश्लेषण के दरवाजे भी छोटे होते चले गए। लेकिन पिछले एक साल में सास-बहू सीरियलों से अलग स्त्री-चिंता पर आधारित सीरियलों की जो नयी खेप आयी है,उसे देखते हुए इन सारे सवालों से गुजरना अनिवार्य लगता है। यहां से टेलीविजन के नए संदर्भ पैदा होते हैं।

मुख्यधारा की मीडिया का अनुसरण करते हुए अगर समस्यामूलक इन सीरियलों को सामाजिक विकास का माध्यम मान लिया जाए तो टेलीविजन फिर से उन एजेंडे की तरफ लौटता नजर आता है जिसे कि दूरदर्शन ने शुरु से अपनी प्रसारण नीति के लिए तय कर रखा है। स्त्री और सामाजिक समस्याओं को लेकर सीरियल प्रसारित करनेवाले निजी चैनल बिल्बर श्रैम के उन निर्देशों को पालन करते नजर आते हैं जिनके अनुसार विकासशील देशों में टेलीविजन का अर्थ अनिवार्य रुप से सामाजिक विकास करना है। लेकिन इतना तो हम भी जानते हैं कि निम्नवर्गीय स्त्रियों पर फीचर दिखाते हुए भी दूरदर्शन ने भी अपने घाटे की भरपाई के लिए शांति ,स्वाभिमान और वक्त की रफ्तार जैसे सीरियलों का प्रसारण किया और दूसरी तरफ उपभोक्ता संस्कृति और बाजारवाद के बीच करीब आठ-नौ सालों से टीवी सीरियल को ‘वूमेन स्पेस’ बनानेवाले चैनल इसे सामाजिक विकास का माध्यम के तौर पर क्यों प्रसारित करना चाहते हैं? फिर इन दोनों स्थितियों को जानते-समझते हुए भी मौजूदा टीवी सीरियलों में ऐसा क्या है जो कि इसे सामाजिक विकास का माध्यम और स्त्री दुनिया को समस्यामूलक विमर्शों के तहत विश्लेषित करने की ओर से जाते हैं?

पहली बात तो यह कि पिछले सात-आठ सालों में सास-बहू सीरियलों के जरिए टेलीविजन ने स्त्री की जिस छवि को स्थापित करने की कोशिश की है,जिन घटनाओं को समस्या के तौर पर उठाने का प्रयास किया है,समस्यामूलक सीरियलों ने उनके बरक्स कहीं बड़ी समस्याओं को लेकर दर्शकों को बांधने की कोशिश की है। उतरन के भरोसे पल रही इच्छा,शादी के झूठे दिलासे में ठाकुर के हाथों चंद रुपयों में बेच दी जानेवाली अगले जनम मोहे बीटिया ही कीजौ की ललिया, लड़का-बच्चा नहीं जनने की वजह से अम्मां के घर बहू बनकर रहने का सपना लिए और अब नौकरानी बनकर रहनेवाली न आना लाडो इस देश में की चंदा(चंदा-इस घर में बहू बनकर आना एक धोखा था और आज इस घर में नौकरानी बनकर रहना सच है) और बिरजू के नीची जाति की होने की वजह से प्रेम से बेदखल कर दी जानेवाली मितवा दो फूल कमल के की बेला,ऐसे दर्जनों चरित्र हैं जो कि दर्शकों की ओर से संवेदना बटोरने के स्तर पर सास के षड्यंत्रों की शिकार पार्वती, रानी, वैदेही, काकुल और आंचल को बहुत पीछे धकेल देती है। ललिया के मां-बाप और छोटे-छोटे भाई-बहनों सहित पूरे-पूरे दिन भूखे पेट काटने के आगे,अदना दो ठेकुए के लिए ‘हमहुं तो छोट जात हैं,हम कहां बामन-पंडित है’ बोलकर अपनी जाति बताने के आगे,पन्द्रह साल में ही सुगना के विधवा हो जाने के आगे, भरी महफिल में सात साल की हिचकी और बाद में अठारह साल की हो जानेवाली इच्छा के जलील किए जाने के आगे और हरियाणा के बीरपुर में अभी-अभी जन्मी बच्ची को जहरीले दूध के हवाले करनेवाली हजारों मांओं के आगे इन सारी सास-बहू सीरियलों के चरित्रों की तकलीफ दर्शकों के लिए बहुत स्वाभाविक नहीं रह जाते। जाति,वर्गीय-चरित्र,सामाजिक हैसियत,लिंग-भेद और सामाजिक कुप्रथा की शिकार इन स्त्री-चरित्रों के आगे, सात-सात,आठ-आठ सालों से आदर्श बहू,परिवार और विवाह संस्था को बचानेवाली स्त्री-चरित्र दर्शकों के भीतर संवेदना पैदा करने की ताकत खो देते हैं। अब की ये स्त्री चरित्र टेलीविजन दर्शकों के लिए ज्यादा स्वाभाविक लगते हैं। सास-बहू सीरियलों को ये चरित्र मेलोड्रामा करार देते हैं। यहां पर आकर टेलीविजन अपनी आलोचना स्वयं करता नजर आता है। ऐसे में उत्सवधर्मी सास-बहू सीरियलों और समस्यामूलक सीरियलों के बीच एक तुलनात्मक स्थिति बनती है जो यह बताती है कि स्त्रियों की समस्याओं का वर्गीय चरित्र होता है,देश की सारी स्त्रियों को देखने-समझने के एक ही आधार बिंदु तय नहीं किए जा सकते,स्त्री की पहले बुनियादी चिंता पेट,लिंग-भेद और जातिगत स्तर पर किए जानेवाले भेदभाव को लेकर है। पहले इसे समझना जरुरी है।

कुछेक हजार में ठाकुर के हाथों बेच दी गयी ललिया अब दक्खिन टोला के बजाय महल में रहती है लेकिन लाखों रुपये दहेज में देने के वाबजूद सास लीलावती के कुचक्र की शिकार हुई वो रहनेवाली महलों की की रानी के झोपड़पट्टी में रहने के दर्द पर ललिया के महल में रहने का दर्द कितना गुना भारी पड़ता है,यहां स्त्री के वर्गीय चरित्र और जातिगत समस्याओं को देखने का एक नया संदर्भ बनता है। स्त्री-छवि के सवाल पर यहां दोनों तरह के सीरियलों को शामिल करें तो वायनरी ऑपोजिशन का फार्मूला चरित्रों के बजाय परिस्थितियों पर आकर लागू होता है और समस्या का दायरा परिवार से बढ़कर समाज तक जाता है। सास-बहू सीरियलों के लगभग सारे स्त्री-चरित्र घरेलू कुचक्र की शिकार होती हैं। ये सारे चरित्र उच्च मध्यवर्ग से आते हैं,खाने-पीने और पहनने के स्तर पर कहीं कोई परेशानी नहीं है। भौतिक स्तर का अभाव नहीं है। आंसुओं को ढोती हुई भी वो गहनों और कीमती पोशाकों से लदी-फदी स्त्रियां है जो बौद्धिक क्षमता और शिक्षा के स्तर पर यह देश की औसत स्त्रियों से कई गुना आगे है लेकिन सास की कारवाईयों के आगे घुटने टेक देती हैं। पति के विवाहेतर संबंधों को चुपचाप बर्दाश्त करती है और कई जगहों पर उसके प्रति सहानुभूति भी व्यक्त करती है लेकिन कहीं भी किसी भी बात के लिए प्रतिरोध जाहिर नहीं करती और दिलचस्प है कि करीब सात-आठ सालों तक इन चरित्रों पर आदर्श बहू का लेबल चस्पाया जाता रहा। मीहान इस तरह की स्त्रियों का विस्तार से चर्चा करती हैं और स्पष्ट करती हैं कि सीरियल ऐसे चरित्रों को अच्छी स्त्री का दर्जा देता है। दूसरी तरफ ललिया सास-बहू सीरियलों की चरित्रों- काकुल(जिया जले),रानी(वो रहनेवाली महलों की) और वैष्णवी(माता की चौकी सजा के रखना) जैसी चरित्रों की हैसियत के आगे कुछ भी नहीं है। उसके गले में पीतल की ताबीज से लटकी लाल सूत भर है, निपट है,समाज जिसे सामाजिक तौर पर साक्षर मानता है वो नहीं है लेकिन सामाजिक तौर पर पितृसत्ता से लगातार टकराती है। उतरन की हिचकी, अम्मो के दर्द को समझते हुए चमकी के साथ काम करती है,बड़ी होकर स्कूल में पढ़ाती है। पन्द्रह साल में ही वैधव्य धारण करनेवाली सुगना(बालिका वधू), श्याम से पहले प्रेम और फिर पुर्नविवाह करने का साहस जुटाती है। बसंत की तीसरी पत्नी बनकर आयी गहना(बालिका वधू) बसंत की इच्छाओं का प्रतिरोध करती है। ये चरित्र स्त्री-मुक्ति की संभावनाओं का विस्तार करती नजर आती है जिसे कि स्त्री-विमर्श की मान्यताओं को भी समर्थन प्राप्त है।

समस्यामूलक सीरियलों के ये वो संदर्भ हैं जो कि भारत सरकार की ओर से सामाजिक न्याय,पुनर्विवाह,स्त्री अधिकार और साक्षरता मिशन के अधिनियमों को मजबूती प्रदान करते हैं। सास-बहू सीरियलों के चरित्र जहां परंपरा और संस्कार के नाम पर विवाह और परिवार संस्था को बचाने की कोशिश में लगे रहे,स्त्री-मुक्ति के नाम पर अपने को मन का पहनने और शॉपिंग करने तक सीमित कर दिया वहीं समस्यामूलक सीरियलों के चरित्र जमीनी स्तर पर बदलाव करते नजर आते हैं। टेलीविजन की स्त्री-दर्शक मूलतः नागरिक हैं और उनके लिए इसी हैसियत से कार्यक्रम प्रसारित किए जाने चाहिए,इस भरोसे के साथ प्रसारित किए जानेवाले इन नए सीरियलों ने अपने को सामाजिक विकास के साथ जोड़कर देखने की गुंजिश पैदा की है। इन सीरियलों ने स्त्री के स्टेटस के सवाल को स्त्री अधिकारों पर लाकर खड़ा किया है।

लेकिन सामाजिक कुरीतियों और समस्याओं को आधार बनाकर दिखाए जानेवाले सीरियलों पर दूसरे पक्ष से विचार करें तो कुछ अलग ही समझ बनती है। पहली बात तो यह कि हमें यह ठीक से समझ लेना होगा सास-बहू सीरियलों के एक-एक करके बंद होते जाने के पीछे टीवी समीक्षकों के प्रयासों के बजाय स्वयं टेलीविजन का अर्थशास्त्र है जिसने उसे आगे चलने की स्थिति में नहीं रहने दिया और दूसरा समस्यामूलक सीरियलों के लगातार लोकप्रिय होते रहने की बड़ी वजह टेलीविजन की स्वाभाविकता के संदर्भ बिन्दु बदल जाने की घटना है। जब हम इन दोनों बातों पर गौर करते हैं तो समस्यामूलक सीरियलों को सामाजिक विकास का पर्याय मानने में थोड़ी परेशानी जरुर होती है।

टेलीविजन का एक सर्वभौम फार्मूला है कि वह संदर्भों और घटनाओं को स्वाभाविक बनाने का काम करे। सास-बहू की लोकप्रियता के जो भी आधार बने और जिसने सीरियल देखने की संस्कृति को स्थापित किया उसके पीछे भी टेलीविजन का यही फार्मूला काम करता रहा। करवाचौथ में सारी स्त्रियां उसी तरह से व्रत रखती हैं,उसी तरह से सजती-संवरती हैं,परिवार को बचाए रखने के लिए उसी रानी की तरह घुट-घुटकर जीती है जैसा कि क्योंकि सास भी कभी बहू थी,कहानी घर-घर की और वो रहनेवाली महलों की जैसे सीरियलों में दिखाया जाता है। नतीजा यह होता है कि इसके जरिए एक नए ढंग की टेलीविजन की प्रस्तावित संस्कृति तो जरुर पनपने लग जाती है जो कि हमें बदलते फैशन और व्यवहार के तौर पर दिखाई देते हैं लेकिन इससे समाजे के भीतर के अन्तर्विरोध कम नहीं होते और संभावनाओं के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो जाते हैं। ऐसे में टेलीविजन समाज की अच्छाई और बुराईयों का विभाजन करने और उसे रेखांकित करने के बजाय उसे स्वाभाविक करार देता नजर आता है। सास-बहू सीरियलों की अधिकांश स्थापनाएं स्त्री के विरोध में है लेकिन वो इतनी स्वाभाविक है कि दर्शकों की ओर से इसे लंबे समय तक स्वीकृति मिल जाती है। इसके ठीक बाद समस्यामूलक सीरियलों की प्रासंगिकता बढ़ती है तो उसके पीछे भी टेलीविजन द्वारा स्वाभाविकता के संदर्भ बिन्दु तलाशने का ही फार्मूला काम आता है।

बालिका वधू एक सामाजिक और स्वाभाविक सच है,उतरन के भरोसे सपने बुननेवाले बच्चों की दुनिया एक स्वाभाविक सच है,शादी-ब्याह में छोटी जाति की स्त्रियों की जरुरत एक स्वाभाविक सच है(ठकुराइन-धनिया,लड़की को नहाने का पानी डालने के लिए किसी छोट जात की औरत को लेकर आ..अगले जनम मोहे बीटिया ही कीजौ) और स्त्री के बच्चा नहीं जनने पर उसे छोड़कर बच्चा पैदा करनेवाली स्त्री के तौर पर दूसरे खिलौने को लाना स्वाभाविक सच है,( अम्मां- तू बस पुराने खिलौने की जिद पकड़कर बैठ गया। म तो तनै नया खिलौना दे रही थी।..लाडो न आना इस देश में) समस्यामूलक सीरियलों में ये सारी स्वाभाविकता शामिल हैं और शुरुआत के एपिसोड को देखकर इसके प्रतिरोध में कारवाई होने की गुंजाईश बनती नजर आती है। लेकिन तीस-पैंतीस एपिसोड तक समस्याओं के स्वाभाविक तौर पर उठाए जाने के बाद अतिरेकीपन-आनंदी,ललिया,अम्मो की व्यथा और दादी सा,अम्माजी और ठकुराइन जैसे चरित्रों के अतिशय क्रूरता के बीच उलझकर रह जाते हैं। किसी भी स्तर पर प्रतिरोध के बजाय उस संरचना के भीतर जीने की स्वाभाविकता ज्यादा प्रभावी हो जाती है। ऐसे में स्त्रियों की ये छवि वास्तविकता को खत्म कर देती हैं और औसत यथार्थ में बदल जाती है। सूसन सौंटगै छवियों के जरिए व्यक्त वास्तविकता को इसी रुप में विश्लेषित करती हैं। इसके साथ ही यहां आकर ये सीरियल सास-बहू सीरियलों की स्वाभाकिता की राह पकड़ लेते हैं जहां आकर दर्शक इन सीरियलों को सिर्फ परिधान,परिवेश और संदर्भों के स्तर पर इसे अलग पाता है नहीं तो यहां भी उत्सवधर्मिता है, हरेक मौके पर ईश्वर के आगे जाने का रिवाज यहां भी कायम है, मुसीबत में भगवान भरोसे छोड़ देने की आदतें है और अपनी बेहतरी का अंतिम विकल्प पुरुषों की छत्रछाया ही साबित होती है। टश्मान के शब्दों में इस तरह घिसी-पिटी छवियों को स्थापित करके उसके सांकेतिक विनाश(symbolic annihilation of women) का काम किया जाता है। यहां भी स्त्री की कोई स्वतंत्र छवि नहीं बनने पाती है और पुनर्विवाह के लिए हिम्मत जुटानेवाली बालिका वधू की सुगना भी ‘मेरी वजह से मायकेवालों का सिर कभी नीचा न होगा’ के संकल्प के साथ घर से विदा लेती है। यही पर आकर इन नए समस्यामूलक सीरियलों के लिए जज्बात के बदलते रंग,टीआरपी का नया फार्मूला और स्त्री समस्याओं को ‘प्लेजर मोड’ में बदल देने जैसे पदबंधों के इस्तेमाल शुरु हो जाते हैं। शुरुआती एपीसोड में सीरियलों के लैंडस्केप बदलने के साथ ही इसके कस्बाई,झुग्गियों और टोलों में स्त्री चरित्र को समझने की जो उम्मीद बंधती है वो पन्द्रह से बीस एपीसोड तक आते-आते शहर और महलों के सेंट्रिक होकर रह जाते हैं। यहीं पर आकर सामाजिक विकास के फार्मूले पर सीरियलों की बात करना बेमानी लगने लग जाते हैं। हां इन सबके वाबजूद इतना जरुर होता है कि स्त्री-दर्शकों का दायरा बढ़ता है,पुरुष दर्शकों की सीरियल देखने के प्रति मरी इच्छाएं फिर से जन्म लेने लग जाती है और छद्म ही सही, व्यापक स्तर पर टेलीविजन मनोरंजन के जरिए जागरुकता पैदा करने का काम करता है,यह भ्रम व्यापक स्तर पर प्रसारित होता है।.

2 comments:

  1. बहुत सुंदर विश्लेषण है। मैं बालिका वधु कभी कभी देखता हूँ। उस से आशा बंधती है लेकिन दूसरे ही पल वह निराशा में बदल जाती है।

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  2. वाह विनीत भाई,
    एकदम पूरा पोस्टमार्टम ही कर डाला है आपने। मुझे जो एक शाश्वत समस्या इन धारावाहिकों, चाहे वो किसी भी विषय को लेकर बन रहे हों , वो ये कि इन्हें पता नहीं होता कि ..अब इसके बाद क्या....और यहीं से भटकाव की स्थिति शुरू हो जाती है..फ़िर न जाने क्या क्या ऊल जलूल और उसे ही आगे बढाते रहने की कोशिश..।

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