Thursday 29 October 2009

उत्सव के बहाने आइने में झांके दूरदर्शन


(मूलतः समाचार-विचार पाक्षिक प्रथम प्रवक्ता 1 नवंबर में मामूली संशोधनों के साथ प्रकाशित)

सामाजिक प्रतिबद्धता के सवालों के साथ खड़े होने का दावा करनेवाले किसी भी देश के टेलीविजन के लिए पचास साल पूरे कर लेना कोई आसान काम नहीं है। आज अगर दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत ने अपने टेलीविजन चैनल दूरदर्शन के पचास साल पूरे कर लिए हैं तो उसे इस बात का हक है कि वो इस मौके पर उत्सव मनाए,अपनी प्रासंगिकता को दोहराए और अपनी उपलब्धियों को देश और दुनिया के सामने रखे। वो इस बात का भी हकदार है कि देश की भाषा,संस्कृति,इतिहास-बोध,राजनीतिक समझ और आर्थिक पहलुओं के विस्तार में अपनी भूमिका को रेखांकित करे। लेकिन इन सबके साथ यह भी जरुरी है कि हम जैसे दर्शक जिसने कि दूरदर्शन के कार्यक्रमों के जरिए भाषाई-संस्कार,मानवीय संवेदना,बौद्धिक विकास और मनोरंजन की सहज और स्वस्थ दुनिया अपनाने और सहेजने की कोशिशें की वो किस हद तक हमें अपने से बांधे रख पाती है,इस पर भी नए सिरे से विमर्श शुरु हों। यह संभव है कि दर्शकों की ओर से किया जानेवाला यह विमर्श दूरदर्शन के उत्सवधर्मी महौल को खींचकर किसी दूसरे कोने में ले जाए लेकिन यही सबसे बेहतर समय है कि इसी बहाने हम पचास साल के टेलीविजन को अपने-अपने स्तर पर रिडिफाइन कर सकें।

दर्शक की हैसियत से दूरदर्शन को रिडिफाइन करने की कोशिश में एक बड़ी परेशानी हो सकती है कि हम अपने-अपने समय के दूरदर्शन में खोते चले जाएं। हमलोग,बुनियाद,नीम का पेड़, चित्रहार, रंगोली, शनिवार और रविवार के हिन्दी फीचर फिल्मों को याद करें और इस मुकाबले आज के निजी टेलीविजन चैनलों को कोसने लग जाएं। मूंछ उगने के दौर में सबके सो जाने पर भी डीडी मेट्रो से चिपके रहने को याद करने लगें और ओह..क्या जमाना रहा था वो भी... कहते हुए नास्टॉलजिक होते चले जाएं। ऐसा करना जितना स्वाभाविक है उतना ही दूरदर्शन के नाम पर एक अंतहीन संस्मरणों की दुनिया में खोते जाने का खतरा भी। इसलिए फिलहाल इस प्रसंग को यहीं छोड़ते हुए विमर्श की शुरुआत दूरदर्शन की उन घोषणाओं से की जा सकती है जहां वह अपने को सामाजिक विकास के माध्यम के तौर पर स्थापित करने की बात करता है।

अपने शुरुआती दौर से ही दूरदर्शन ने सूचना,शिक्षा और मनोरंजन को बतौर प्रमुख एजेंड़े के तौर पर शामिल किया है। समय-समय पर प्रसार-भारती की ओर से जारी किए जानेवाले बुकलेट इसकी विस्तार से चर्चा करते हैं। इस लिहाज से बचपन से लेकर अब तक के दूरदर्शन के कार्यक्रमों और गतिविधियों को याद करें तो ज्ञानवाणी से लेकर पत्रिका तक ऐसे दर्जनों कार्यक्रम जान पड़ते हैं जिससे इस एजेंड़े के लागू होने की झलक मिलती नजर आती है। जहां तक मनोरंजन का सवाल है तो हम सबने रविवार की सुबह रामायण और बाद में महाभारत के प्रसारण के चलते शहर भर की सड़कों के सूने हो जाने का आलम अपनी आंखों से देखा है। चित्रहार,फीचर फील्म और नीम का पेड़ के हिसाब से घर की महिलाओं को काम करने के टाइम-टेबुल को बदलते देखा है। भारतीय दर्शक समाज का पूरा का पूरा एक वर्ग रहा है जिसकी दिनचर्या एक हद तक दूरदर्शन के कार्यक्रमों के हिसाब से तय होती रही। इस दूरदर्शन की वजह से देश के कई गुमशुदा रिश्तेदार मिल जाया करते तो कई प्रतिभाओं को नया नाम मिला। इस दूरदर्शन का असर इतना कि सीरियल की कहानियां,फिल्मी गाने और संवाद तो छोड़िए, विज्ञापन की एक-एक लाइन तक याद हो जाया करते। क्या कुछ नहीं रहा दूरदर्शन में और इसके साथ ही हममें से कोई सवाल भी कर सकता है कि तो फिर आज क्या वजह है कि कभी दर्शक मन पर छाया रहनेवाला यह दूरदर्शन आज हमारे मनोरंजन की प्राथमिकता से बाहर है,खबरें जानने के माध्यम से जुदा है,बौद्धिक विकास का माध्यम मानने से हमे इन्कार है और और सामाजिक प्रतिबद्धता के मसले पर हम सवाल खड़े करने को तैयार हैं।

प्रसार भारती की ओर से जारी किए जानेवाले बुलेटिन बताते हैं कि दूरदर्शन की पहुंच देश की कुल आबादी क्षेत्र का नब्बे फीसदी से भी ज्यादा है। यानी कि निजी चैनलों के मुकाबले दूरदर्शन आज भी सबसे ज्यादा देखा जानेवाला चैनल है। ऐसा बताते हुए प्रसार भारती को दूरदर्शन की पहुंच से हटकर इस बात पर एक सर्वे कराने चाहिए कि देशभर में कितने ऐसे लोग हैं जहां मुफ्त में दूरदर्शन की पहुंच होने के वाबजूद भी डेढ़ सौ से चार सौ रुपये तक प्रतिमाह खर्च करके निजी चैनल देखते हैं। एक व्यावहारिक समझ बनती है कि जहां कहीं भी निजी चैनलों की पहुंच है वहां के लोग दूरदर्शन न के बराबर देखते हैं। इसे आप इस तरह से भी देख सकते हैं कि सबसे अधिक पहुंच होने पर भी दूरदर्शन सबसे ज्यादा नकारा जानेवाला चैनल है और उसके अधिकांश दर्शक मजबूरी की स्थिति में उसे देख रहे हैं। फिलहाल टीआरपी को मानक के तौर पर लें(हालांकि इसमें भी कई स्तरों पर खोट है) तो साफ है कि इसकी रेटिंग सात- आठ से उपर नहीं होती। यह स्थिति तब की है जब यह फ्री टू एयर है,डीटीएच सुविधा है,कई मैचों को दिखाने के सर्वाधिकार सुरक्षित हैं,केबल ऑपरेटर को दूरदर्शन दिखाने की लगातार हिदायतें दी जाती है। इन सबके साथ आर्थिक तौर पर सरकार की ओर से करोड़ों रुपये की वित्तीय सहायता और प्रसारण के सर्वाधिकार दिए जाते है,नहीं तो यह साफ है कि व्यावसायिक दृष्टि से यह सबसे पिछड़ा चैनल रहा है।

दूरदर्शन का उद्देश्य सामाजिक विकास और खबरों की प्रामाणिकता रही है, मुनाफा कमाने के पीछे इसका कभी भी ध्यान नहीं रहा है,इस तर्क के साथ हम जैसे दर्शकों ने लंबे समय तक दूरदर्शन को देखने-समझने की कोशिश की है। लेकिन कई सारे संदर्भ यह साफ करते हैं कि दूरदर्शन ने सामाजिक विकास की लीक को छोड़कर जब-तब व्यावसायिक तौर पर अपने को आजमाने की कोशिशें की। नहीं तो हमलोग और बुनियाद जैसे सीरियलों के संस्कार को लेकर चलनेवाले दूरदर्शन के लिए शांति,स्वाभिमान,वक्त की रफ्तार जैसे सीरियलों में ऐसे कौन से सामाजिक विकास के मसले थे जिसे कि वो लगातार प्रसारित करता रहा? पीटीआई की रिपोर्ट बताती है कि दूरदर्शन ने महज घाटे की भरपाई के लिए इस तरह के कार्यक्रमों को जारी रखा। डीडी मेट्रो इसी व्यावसायि समझ के तौर पर आया। दूरदर्शन की व्यावसायिक समझ और सामाजिक विकास को एक दूसरे को परस्पर विरोधी रुप में रखकर देखा गया नतीजा यह हुआ कि यह व्यासायिकता और सामाजिक विकास,खबरों की तटस्थता और व्यूरोक्रेसी, लेटलतीफी कार्य-संस्कृति, घसीटेपन और दर्शकों की बदलती अभिरुचि के बीच यह बुरी तरह फंसकर रह गया है। ऐसा होने से दर्शकों के बीच एक स्वाभाविक अभिरुचि पैदा करने की नैतिक जिम्मेवारी दूरदर्शन के उपर बनती है,उससे वह धीरे-धीरे करके मुकरता चला गया। इसलिए सालों स्वाभिमान जैसे मेलोड्रामा देखने के बाद दर्शक गुलजार के बनाए गोदान के महत्व को समझ नहीं पाती,फिल्मी चालू गानों के बीच शास्त्रीय संगीत महज औपचारिकता बनके रह जाता। यह अभिरुचि के छिन्न-भिन्न कर दिए जाने का ही नतीजा है कि निजी चैनलों के चिल्लम-पों से उब जाने के वाबजूद भी हम दूरदर्शन की शरण में जाना पसंद नहीं करते जबकि कभी कुछ न आने पर भी स्क्रीन पर पड़ी रंगीन पट्टियों पर ही नजर टिकाए रखते।

दूसरे चैनलों के मुकाबले दूरदर्शन के पास सबसे पहले ओबी वैन आयी,संचार क्रांति के साधन आए लेकिन भ्रष्टाचार को लेकर कोई स्टिंग ऑपरेशन नहीं। बहुत कम ही ऐसे मौके रहे जब वो मौजूदा सरकार के प्रति क्रिटिक हो पाया हो। खबरों की तटस्थता के नाम पर कई मसलों पर चुप्पी,दूरदर्शन के प्रति दर्शकों की विश्वसनीयता को कम करती गयी। नतीजा हमारे सामने है कि एक स्वायत्त इकाई के तहत संचालित होने पर भी इस दूरदर्शन को ‘सरकारी भोंपू’ के तौर पर देखा जाने लगा है। दूरदर्शन के साथ एक बड़ी सुविधा है कि इसके पास सबसे बड़ा इन्फ्रास्ट्रक्चर रहा है,सबसे पुरानी अर्काइव और नेटवर्किंग,ऐसे में वो देश का सबसे आजाद माध्यम बन सकता था लेकिन जब-तब के प्रयासों के वाबजूद ऐसा नहीं हो पाया।

इसलिए आज हम जब दूरदर्शन के पचास साल होने पर आनंदित हो रहे हैं,इसे एक विरासत के तौर पर देख रहे हैं,ऐसे मौके पर दूरदर्शन की ओर से रची जानेवाली टेलीविजन संस्कृति को बार-बार झांकने की जरुरत है। यह समझने की जरुरत है कि सामाजिक माध्यम के तौर पर उसने लोकतंत्र की आवाज को कितना बुलंद किया है,हाशिए पर के समाज को कितनी जगह दी है और सरकारी चेहरा बनने से अपने को किस हद तक बचा पाया है? दूसरी तरफ स्वयं दूरदर्शन को भी इस एहसास के साथ आगे बढ़ने की जरुरत है कि वह सैंकड़ों चैनलों के तैनात रहनेवाले मैंदान के बीच खड़ा है,जहां हरेक चैनल सेग्मेंटेड ऑडिएंस की इच्छाओं को पूरा करने के लिए तत्पर है और उसे इन सबके बीच अपनी साख जमानी है। उत्सव के बहाने अपने को स्वयं परिभाषित करने और आत्म आलोचना के दौर से अगर दूरदर्शन नहीं गुजरता है तब वह सरकारी सहानुभूति का हिस्सा बनने के अलावे कुछ और नहीं हो सकता.

1 comment:

  1. बहुत अच्छा विष्लेशण,वाकई पीछे मुड़ के देखते है तो दूरदर्शन से जुड़ी कितनी सारी सुनहरी यादें आज भी हमसे जुड़ी है,कल्पना करें भारत एक खोज की,तमस के वो सात एपीसोड,ये है जो ज़िन्दगी,नुक्कड़,मालगुडी डेज़,भारत एक खोज और बहुत से सामाजिक सरोकार से जुड़े कार्यक्रम जो जो हमने दूरदर्शन पर अतीत में देखे हैं..आज के दौर में निजी चैनल पर सम्भव ही नहीं है,

    वैसे भी दूरदर्शन से इन निजी चैनल की तुलना नहीं होती पर आज दूरदर्शन का जो हाल है वो सही मायनो अगर चाहे तो ठीक से संवार सकता है...पर लालफीता शाही और भ्रष्टाचार के चलते हम भी दूरदर्शन पर दया के सिवाय कुछ कर भी नहीं सकते।सिर्फ़ और सिर्फ़ उन पुराने दिनों की सुनहरी यादों के सहारे कब तक दूरदर्शन को हम ज़िन्दा रख सकते हैं?

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