Tuesday 24 April 2012

न्यूज चैनलों से ज्यादा संवेदनशील है क्राइम पेट्रोल


अपराध से जुड़ी घटनाओं और खबरों पर आधारित कार्यक्रमों के जरिए जागरुक करने के न्यूज चैनल चाहे जितने भी दावे कर ले लेकिन उसका असली मकसद जुर्म को तमाशे में तब्दील करने से ज्यादा कुछ नहीं है. ये बात मजबूती से इसलिए भी कही जा सकती है कि जिस नाट्य रुपांतर का इस्तेमाल घटना के बिखरे तारों और सबूतों को जोड़कर अधिक प्रामाणिक और विश्वसनीय बनाने के होने चाहिए, उसे पूरी तरह टीवी सीरियल का असर पैदा करने के लिए किया जाता है.

ढिंचिक-ढिंचिक बैग्ग्रांउड म्यूजिक, व्ऑइस ओवर और सर्कस की तरह एंकरिंग से घटना के प्रति चैनल की संवेदना और पूरी तरह खत्म हो जाती है. ऐसे में ऑडिएंस के सामने सीधा सवाल है कि अगर उसे सच्ची घटनाओं पर आधारित तमाशे ही देखने हैं तो वो सनसनी, वारदात या जुर्म क्यों देखे क्राइम पेट्रॉल क्यों न देखे ? कम से कम उसके दिमाग से ये भ्रम तो खत्म हो जाएगा कि वो कोई न्यूज चैनल देख रहा है.

सोनी एन्टरटेन्मेंट चैनल पर वैसे तो सालों से क्राइम से जुड़े कार्यक्रम दिखाए जा रहे हैं लेकिन सीजन 4 में सच्ची घटनाओं पर आधारित जो एपीसोड प्रसारित किए जा रहे हैं, वो थोड़े वक्त के लिए भरोसा पैदा करते हैं कि मनोरंजन के जरिए भी ऑडिएंस को बेहतर ढंग से संवेदनशील और क्रिटिकल बनाया जा सकता है. मनोरंजन चैनल होने के नाते चैनल को पूरी छूट है कि वो इन घटनाओं को ज्यादा से ज्यादा नाटकीय ढंग से पेश करे लेकिन इसकी सादगी और शांत शिल्प में प्रस्तुति कार्यक्रम को अधिक विश्वसनीय बनाती है. अनूप सोनी न्यूज चैनलों की तरह किसी भी तरह की ड्रामा शैली अपनाने की जरुरत नहीं पड़ती और सामान्य ढंग से घटना के बारे में तफसील से बताते जाते हैं जो कि ज्यादा प्रभावी लगता है. शायद यही कारण है कि जब भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़नेवाले सत्येन्द्र दुबे जिसकी हत्या कर दी गई पर चैनल ने एपीसोड (100) दिखाए तो किसी भी न्यूज चैनल के स्टिंग ऑपरेशन से ज्यादा स्पष्ट और भरोसेमंद लगे.

इसमें कोई दो राय नहीं कि क्राइम पेट्रॉल जिस “जुर्म के खिलाफ जंग” के दावे कर रहा है, उसमें उसका व्यावसायिक हित छिपा है और ऐसा करके कोई समाज सेवा नहीं कर रहा. लेकिन अगर मनोरंजन के जरिए भी समाज को बेहतर ढंग से संवेदनशील और मुद्दों के प्रति जागरुक बनाया जा सकता है तो इसकी तारीफ की जानी चाहिए. सीरियल के पीछे बेहतरीन रिसर्च वर्क है जो कि स्क्री पर साफ झलकता है. जिसे देखकर शायद आप भी कहें- काश, इसी तरह की समझ और सतर्कता से हमारे न्यूज चैनल भी काम करते तो उसका अलग ही असर होता. वो मनोरंजन से कहीं आगे संबंधित व्यक्ति/ संस्थान पर दबाव बनाने का काम कर पाता. ( मूलतः तहलका में प्रकाशित )

1 comment:

  1. आपकी बात १०० फीसदी ठीक है पर इसका टाइम थोरा पहले और होता तो ज्यादा से ज्यादा लोग इसे देख सकते..

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