दुनिया के लिए जो आवाज शोर है, वो स्नेहा
खानवलकर के लिए संगीत है. सड़कों पर जिन
ऑटो रिक्शा, हार्न की चिल्ल-पों, भागती-चिल्लाती भीड़ देखकर हम झल्ला उठते हैं,
स्टडी टेबल पर बैठकर हम कुछ पढ़ना चाहते हैं और बाहर की ढन-ढन और किचन की उठापटक
से हम इरिटेट हो जाते हैं, स्नेहा के लिए उन सबके बीच संगीत है. एमटीवी की बांह
पकड़कर इन दिनों वो इसी तरह की आवाज को रिकार्ड करने और फिर उसे गानों की शक्ल
देने के लिए देश के अलग-अलग हिस्सों में घूम रही है.
साउंडट्रिपिन नाम के इस शो को एमटीवी जिस तरह से प्रोमोट कर रहा है, अगर उसके दावे आगे
चलकर सच निकलते हैं तो टीवी का वाकई एक दिलचस्प शो होगा. एक तो ये कि कई आवाजें,
ध्वनियां शायद आनेवाले समय में खत्म हो जाएंगी, जिसे आज हम शोर मानकर नकार दे रहे
हैं, बाद में उसे याद करके नॉस्टैल्जिक हो उठें, उन सबका संग्रह हो सकेगा. दूसरा
कि जो ध्वनियां और धुनें छोटी जगहों पर सिमट गयी है, किसी खास बिरादरी या क्षेत्र
का हिस्सा बनकर रह गयी है, उसका विस्तार हो सकेगा. और इन दोनों से भी जरुरी एक बात
की संगीत की धुनें सिर्फ साज से ही पैदा नहीं होतीं, रोजमर्रा की उन हरकतों और
हलचलों से भी पैदा होते हैं, इस दिशा में आगे भी प्रयोग की संभावना बढ़ेगी. बेलन,
घड़ा,थाली-परात के जरिए संगीत अजब-गजब कारनामों में जब-तब दिखाया जाता रहा है,
हिन्दी सिनेमा और साहित्य में ऐसी ध्वनियों की जब-तब चर्चा होती रही हैं लेकिन ये
खोज का हिस्सा कभी नहीं रहा.
स्नेहा और एमटीवी इस शो के जरिए आज अगर ये
दावा कर रहा है कि वो इन आवाजों और नकारे जानेवाले शोर से दस गाने हमारे सामने पेश
करेगा तो हम सिर्फ मनोरंजन के लिहाज से नहीं देख रहे हैं. हम देख रहे हैं कि एक
तरफ तो नैचुरल आवाजें भी जहां सिंथेसाइजर और कैसिओ में जाकर कैद हो जा रही है,
कीबोर्ड के जरिए सारी ध्वनियां पैदा कर दी जाती है, वहीं भीड़-भाड़ और
धक्का-मुक्की के बीच से जिन शोर और आवाज की रिकार्डिंग होगी, वो संगीत की दुनिया
में क्या अलग करेगा ? अच्छा ही है अगर इनमें से एक
भी गाने पॉपुलर होते हैं तो हमारी दुनियाभर के शोर-शराबे के बीच रहते हुए भी
झल्लाहट पैदा होने के बजाय उनमें संगीत के बीज खोजने की बेचैनी बनी रहेगी.
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