Saturday 24 January 2009

एनडीटीवी इंडिया के स्ट्रगलडॉग्ज फैमेलियर



मुंबई की पटरियों पर,15 रुपये में हरेक माल बेचकर,700 रुपये महीने पर सेल्समैन की नौकरी बजाकर और दिन-रात ऑटो चलाकर कोई हीरो बन जाए,ये कहानी स्लमडॉग फिल्म की कहानी से कम दिलचस्प,ऑरिजिनल और भावुक करनेवाली नहीं है। अगर कोई कहानी की सच्चाई साबित करने पर उतर जाए और स्लमडॉग मिलेनियर के लेखक से उस लड़के का पता मांगने लग जाए तो संभव है कि लेखक को भारी मशक्कत करनी पड़े। यह भी संभव है कि इस बात को फिल्मी-फिल्मी बोलकर रफा-दफा कर दिया जाए। लेकिन इकबाल परवेज(एनडीटीवी इंडिया) ने जिन स्ट्रगलडॉग्ज को लेकर अपनी स्टोरी बनायी है, उनसे कोई भी बड़ी आसानी से मिल सकता है। इकबाल खुद भी उनका पता बता सकते हैं। क्योंकि इनकी कहानी फिल्मायी नहीं गयी है,बल्कि सीधे जीवन से उठाकर ऑडिएंस के सामने रख दी गयी हैं।

सात साल से कुछ ज्यादा ही वक्त हो गया, बकार खान मुंबई की सड़को पर ऑटो चलाते रहे। सिर्फ पेट पालने के लिए नहीं, अपने सपने को जिंदा रखने के लिए, हकीकत में बदलने के लिए।...और सपना भी तो फिल्म बनाने की, फिल्मी हीरो बनने की। औसत दर्जे का वो सपना जिसे कि देश के हर 10 यंगर्सं में कम से कम एक-दो तो देखते ही हैं। फिल्मों में काम करने का सपना देखना, इंसान को पागल घोषित करने के कारणों को मजबूती देता है। वो भी तब,जब इंसान के पास दूसरों की फिल्में देखकर कुछ सीखने-समझने की हैसियत तक न हो।

राजीव दिनकर ने मुंबई में सात सौ रुपये की नौकरी से अपना करियर शुरु किया। इस नौकरी को करियर कहना थोड़ा अटपटा ही होगा, 700 रुपये में भला कौन-सी करियर बन सकती है वो आप और हम बेहतर तरीके से जानते हैं। लेकिन दिनकर के जज़्बाती अंदाज में कहें तो सपने तो तभी कैरी कर ही रहे थे, सपने तो उन पैसों में पल ही रहे थे,आगे जाकर औऱ कुछ बेहतर होने की उम्मीद तो बनी ही रही। मुंबई के सडांध इलाकों में काफी समय तक गुजारा किया, जैसे-तैसे जीवन जिया। लेकिन सपने को मरने नहीं दिया।...और सपना भी तो फिल्मी हीरो बनने की। औसत दर्जे का वो सपना जिसे कि देश के हर 10 यंगर्स में कम से कम एक-दो तो देखते ही हैं। फिर वही बात, फिल्मों में काम करने का सपना देखना, इंसान को पागल घोषित करने के कारणों को मजबूती देता है। वो भी तब,जब इंसान के पास दूसरों की फिल्में देखकर कुछ सीखने-समझने की हैसियत तक न हो।

हरिकिशोर पनानिया, सिनेमा के बारे में जब भी सोचते हैं तो उन्हें फिल्मी हीरो से ज्यादा गुलजार,जावेद अख्तर और अब्बास टायरवाला का काम अपनी ओर खींचता है। इसलिए पन्नों पर अपनी कलम घिसते हुए,कभी भी हीरो बनने के बजाय फिल्मी लेखक के तौर पर अपनी पहचान बनाना चाहते हैं। हरिकिशोर का सपना हिन्दी के उन लेखकों की हरकतों से ज्यादा ईमानदार है जिन्हें अगर हुलिया सुधारने के लिए मीडया या फिर फिल्म के लिए लिखने की सलाह दी जाए तो अपमानित महसूस करते हैं। उन्हें लगता है कि लोग किसी पॉलिटिक्स के तहत बाजारु लेखक साबित करना चाहते हैं। ये अलग बात है कि जिन लेखकों की रचनाओं पर फिल्में बनी है,उसे शोहरत में शुमार कर लिया जाता है, दो लाइन के संवाद भी कहीं फिल्म में इस्तेमाल होने पर अपनी रिज्यूमे में जिंदगी भर चेपता रहता है. हरिकिशोर खाटी फिल्मी लेखन करते हैं औऱ अब नाम की इच्छा रखने के बजाय इसके जरिए माली हालत दुरुस्त करने की हसरत रखते हैं।

एनडीटीवी की खबर के ये स्ट्रगलडॉग्ज ने कैमरे के सामने जब अपनी बात रखनी शुरु की तो स्लमडॉग मिलेनियर से ज्यादा रोमांचकारी,ज्यादा सच्चे और ज्यादा विश्वसनीय लगने लगे। एक तो वो जो कुछ भी बता रहे थे, उसे हम खबर के तौर पर देख रहे थे,इसलिए पूरे आधे घंटे तक एक विश्वसनीयता के साथ सुनते-देखते रहे। दूसरी बात की वो खुद भी अपनी बात किसी एक्टिंग के स्तर पर नहीं बाइट्स के स्तर पर हमसे शेयर कर रहे थे। स्लमडॉग का स्लमडॉग अगर ऐसी बाइट दे तो वो प्रोमोशन होगा, आपबीती नहीं। उन्हें देखते हुए इस बात का भरोसा जम रहा था कि जीवन के अनुभवों को साझा करने के लिए न तो हाहकारी विज्ञापनों की जरुरत होती है और न ही समझाने के लिए ऑडिएंस के आगे ताम-झाम फैलाना होता है।

पूरे पैकेज में कहीं कोई ऐसा हाथ निकलकर नहीं आया जो कि इनके मैले-कुचैले औऱ स्ट्रगलर होने की स्थिति में हाथ थामने लग गए। हां बीच-बीच में कुछ ऐसे फुटेज दिखाए गए जिसमें स्टैब्लिश औऱ नामचीन लोगों के साथ इनकी तस्वीरें थी। राजीव की एक बाइट थी जिसमें उन्होंने बताया कि एक फिल्म में वो नाना के साथ साइड डांसर के तौर पर डांस कर रहे थे, इसी बीच गुलजार की नजर उनके चेहरे पर गयी। उन्होंने कहा- नाना से ज्यादा गुस्सा तो इसके चेहरे पर है, कैमरा इसकी तरफ जूम इन करो,बस इतना ही।

आज बकार खान फिल्म इंडस्ट्री में स्टैब्लिश होने के करीब हैं। खुद ही प्रोड्यूसर, खुद ही हीरो के रुप में पहचान बना चुके हैं। अब ऑटो उनकी रोजी-रोटी का जरिया नहीं रह गया है लेकिन पिछले धंधे से प्यार अब भी बना हुआ है। ऑटो अब भी चलाते हैं और पीछे बैठी सवारी उनके एक्टिंग की तारीफ करती है।

राजीव दिनकर 300 से ज्यादा कोरियोग्राफी कर चुके हैं। भोजपुरी फिल्मों में बतौर हीरो एन्ट्री मिल चुकी है। सात-आट फिल्में हाथ में है और तीन-चार की शूटिंग अब भी चल रही है। महीने में तीन-चार कोरियोग्राफी भी कर लेते हैं।

हरिकिशोर पनानिया सौ से ज्यादा फिल्में लिख चुके हैं। माली हालत में कोई बहुत अधिक सुधार तो नहीं हुआ लेकिन पूंजी के नाम पर जम्बो,काल और कृष जैसी फिल्मों की कहानियों को उनसे चुरा लेने का मजबूत दावा है। राइटर्स एशोसिएशन की नकेल कसने में लगे हैं। फिल्म इंडस्ट्री के भीतर के दोगलेपने से दुखी तो जरुर हैं लेकिन भरोसे के साथ तने हुए हैं कि आनेवाला कल उनका है।

चलते-चलते अगर स्लमडॉग मिलेनियर के उस लड़के के सपने से जिसमें वो करोड़पति बनना चाहता है औऱ बनता भी है औऱ इन तीनों के सपनों की तुलना करें तो फासला बहुत अधिक का नहीं है। केबीसी के जरिए करोड़पति बनने का सपना उतना ही पुराना हो सकता है जितना पुराना केबीसी है। लेकिन फिल्मी हीरो बनने का सपना उसके मुकाबले यंगर्स के लिए आदिम सपना है। ये तीनों आदिम सपने को पूरा करते नजर आ रहे हैं औऱ वो भी सिर्फ रुपहले पर्दे पर नहीं, असल जिदगी में,ठेस-ठोकर खाते हुए,सलाम बाम्बे करते हुए....इन्हें स्लमडॉग मिलेनियर से ज्यादा पॉपुलर होने का हक थोड़े नहीं है?

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