Wednesday 28 January 2009

ख़बरों की गटर में हाथ डाले है एनडीटीवी




एनडीवी इंडिया ने कल जैसे ही खबरों के गटर बन चुके न्यूज चैनलों का ढक्कन उठाया कि मीडिया पुरोहित, अपनी-अपनी अटकलें और खुन्नस लेकर बैठ गए। अधिकांश लोगों को इसमें टीआरपी का खेल नजर आता है। कुछ के लिए ये एनडीटीवी की हताशा है जो अपने भाईयों को नीचा दिखाकर ऑडिएंस की नजरों में दूध का धुला साबित करके, हल्का होना चाह रहे हैं। इसे आप सिम्पेथी ट्रीटमेंट कह सकते हैं। दुख-दर्द के दिनों में लोग कंधा खोजते हैं, कुछ-कुछ वैसा ही। इसलिए कुछ लोग इस खबर से इत्तफाक रखने के बजाय एनडीटीवी को ही नसीहतें देने की मुद्रा में हैं कि वो दूसरों को गरियाने के बजाय खुद ही सुधर जाए तो ज्यादा बेहतर होगा। इन मीडिया पुरोहितों का ऐसा मानना स्वाभाविक भी है क्योंकि जब अपने ही घर का सगा भाई धोखा कर जाए तो दांत पीसना तो स्वाभाविक ही है। अब तक देश की एक आम ऑडिएंस को भला क्या पता कि खबर के नाम पर भीतर क्या-क्या किया जाता है, किन चीजों औऱ घटनाओं को ऐसे इन्जेक्शन दिए जाते हैं कि वो घंटा-आध घंटा लगते ही खबर की शक्ल में उफनने लग जाता है। स्टार न्यूज तो ट्रांसपरेंसी के नाम पर स्टूडियो के भीतर का नजारा तो दिखाता है लेकिन इतने से कहां काम चलता है। ऑडिएंस को तो सबकुछ चाहिए खुल्लम-खुल्ला।

हम जैसे लोग मीडिया पुरोहितों की तरह बात नहीं कर सकते क्योंकि न तो हमारे लिए मीडिया विश्लेषण का मतलब सिर्फ टीआरपी के बक्से के आसपास चक्कर काटना है और अंत तक इसी में उलझकर रह जाना है और न ही हम इस बिजनेस में कूदे हुए लोग हैं। सच तो ये भी है कि इस कार्यक्रम से न ही हमारा इगो हर्ट हुआ है। बल्कि हमें तो खुशी इस बात की हो रही है कि न्यूज चैनलों के खबरों का गटर बन जाने से जो सड़ांध पैदा होता रहा है,जिसका भभका हम आए दिन झेलते रहे, प्राइम टाइम में खाना खाने के बाद उससे गुजरते हुए उबकायी को दबाते रहे, कोई चैनल भी इस भभके को महसूस कर सका है। हम तो फिलहाल उनका शुक्रिया ही अदा करना चाहेंगे।

दूसरी बात, मीडिया पुरोहितों ने जो भी बातें की है, उसकी भाषा और कंटेट कचहरी की उस भाषा का हिस्सा है जिसे या तो न्यायाधीश समझ सकता है या फिर मुवक्किल की तरफ से लड़नेवाला वकील ही। संभव है इन दोनों में से कोई भी मुवक्किल को गुमराह कर दे। इसलिए ऑडिएंस की हैसियत से कोई भी नहीं चाहेगा कि बिना इस भाषा और कंटेट को समझे,इसे लेकर अपना सिर फोड़े। हम तो बस इतना समझ पा रहे हैं कि अब तक जो चैनल सरकार द्वारा लगाई जा रही पाबंदियों का विरोध करते रहे हैं, लोकतंत्र के नाम पर जब-तब ऑडिएंस की भावनाओं से खेलते रहे औऱ अपने को बचाए जाने की गुहार लगाते रहे हैं। आज वो इनकी नजर में बौने साबित हुए हैं। मीडिया के लोगों के भीतर एक स्ट्रैटजी सी बन गयी थी कि रेगुलेशन के नाम पर हम खुद को रेगुलेट करेंगे, हम सरकार या किसी बाहरी ताकतों से संचालित नहीं होगे, हमारा गला न घोंटा जाए। ये अलग बात है कि जब-जब सरकार की ओर से ऐसे प्रयास हुए, देश की ऑडिएंस ने उनका भरपूर साथ दिया। ये जानते हुए भी कल जब ये मुसीबत से उबरेंगे तो बिसर जाएंगे। हमारी बातों पर ध्यान नहीं देंगे, चैनलों के ऑफिस में, एसाइनमेंट डेस्क पर फोन करने से मां-बहन की गालियां देगें, कहेंगे कि देखना है तो देखो नहीं तो अपनी इलाज कराओं। ऑडिएंस ने ये अपमान झेलते हुए भी इनका साथ दिया है वो भी सिर्फ इसलिए कि गाली देते हैं तो देते हैं, कम से कम भ्रष्ट हो चुकी सिस्टम पर नकेल भी तो कसते हैं। ऐसी खबरों के दिखाए जाने के बाद ऑडिएंस शायद थोड़ी कम भावुक होने लगे।
कुछ मीडिया पुरोहितों के लिहाज से ऑडिएंस को खबरों की समझ नहीं है इसलिए वो हो-हल्ला मचाती है। अब एनडी के इस कार्यक्रम को देखकर हम तो यही अंदाजा लगा रहे हैं कि या तो हम सही हैं या फिर एनडी को खबरों को लेकर नए सिरे से समझ विकसित करनी होगी। नए सिरे का मतलब है उसे भी रंगे सियार का रुप धारण करना होगा। इस खबर को लेकर जो ऑडिएंस प्रो होने की खुशफहमी या गलतफहमी पाल रही है, उसे चाहे जैसे भी हो बाकी चैनलों की तरह साबित भी करना होगा। अगर ऐसा नहीं करते तो संभव है कि बाकी के सारे चैनल लामबंद होकर इन्हें या तो जात-बिरादरी बाहर कर दे या फिर जबरदस्ती पकड़कर रंग दे। रंगना माने, इसके उन-उन खबरों को हमारे सामने रखे जिससे कि ये साबित हो सके कि जनाब ये भी दूध के धुले नहीं है। वाकई, चैनलों के बीच ये एक दिलचस्प खेल होगा, खासकर तब जबकि सारे चैनलों ने एकजुट होकर सरकार के फैसले को पटकनी देकर एकजुट होने का परिचय दिया है। अब चाहे कोई कुछ भी कर ले, कबड्डी के दो पाले तो तैयार हो ही गए।
एक भारी रिस्क एनडीटीवी ने लिया है औऱ ऑडिएंस के लिए एक सुविधा भी मुहैया कराया है कि वो खबरों को फिर से परिभाषित कर सके। किताबी समझ औऱ निजी चैनलों के करतब-ताल के आधार पर जो कुछ भी खबर के नाम पर देखती आयी है, उसे रेक्टिफाई कर सके।
और अंत में चैनल जो बार-बार और अभी भी दावे करती आयी है कि हम खुद सुधार जाएंगे, हमारे उपर किसी सुधार गृह की शर्तें मत लादो..उसका क्या होगा। एनडीटीवी के इस नजरिए को बाकी के चैनल सुधार का हिस्सा मानेंगे या फिर इसे टीआरपी के बक्से में बंद कर देंगे। तब फिर सरकार का मुंह भी तो खुलेगा- लो तुम्हारे भाई ने ही तो कहा कि तुम खबरों के नाम पर कचरा फैला रहे हो, अब बोलो क्या किया जाए तुम्हारे साथ.।..

3 comments:

  1. sahi किया ndtv ने.. ऐसा ही होना चाहिये..

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  2. सब एक दूसरे पर पिल पडॆ हैं ।

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  3. मैंने देखा तो नही उस शो को जिसमे NDTV ने ऐसा कुछ किया था पर सहमत हूँ इस बात से की न्यूज़ चैनल्स बिक गए हैं, उनका कोई ईमान धर्म नही रहा, ऐसी खबरें निकालते हैं की सर नोचने का मन करता है, पता नही जनता क्यों उन्हें इतना भाव देती है, मैं तो NDTV व कुछ हद तक जी न्यूज़ देखती हूँ, बाकी चैनल बदलने की हिम्मत नही होती, कही पकी पकाई कहानी की 'लाइव टेलेकास्ट', कहीं प्रेतात्मा, कही 'वारदात', कही टीवी serials के अंश। हद है!!

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