Wednesday 4 March 2009

टीवी सीरियलों में जज़्बात के बदलते रंग


मूलतः नया ज्ञानोदय,मार्च में प्रकाशित
लम्बे समय से टेलीविजन को इडियट बॉक्स या फिर बुद्धू बक्सा के रुप में बदनाम कर रहे टीवी सीरियल्स अब इसकी छवि को सुधारने में जुटे हैं। पिछले सात-आठ महीनों में नए सीरियलों की खेप पर गौर करें तो ऑडिएंस के प्रति जिम्मेवारी औऱ सामाजिक संदर्भ के मामले में निजी मनोरंजन चैनल्स दूरदर्शन से भी कहीं आगे निकलते नजर आ रहे हैं। इस बीच कुछ पुराने अखबारों की कतरने हाथ लग जाए जिसमें दूरदर्शन से जुड़ी खबरें प्रकाशित की गयी हैं तो आपका भरोसा और मजबूत हो जाएगा। आपको अंदाजा लग जाएगा कि स्वस्थ मनोरंजन औऱ सामाजिक जागरुकता के नाम पर दूरदर्शन ने भी कभी काफी कुछ वो कार्यक्रम दिखाए,जो किसी भी लिहाज से ऑडिएंस के लिए जरुरी नहीं थे। यह जानते हुए कि यह अंतहीन और अतार्किक कहानी है औऱ इसका कोई भी सामाजिक सरोकार नहीं है। महज अपने घाटे की भारपाई के लिए शांति और स्वाभिमान जैसे सीरियल्स लंबे समय तक प्रसारित किए.( शांति से प्रतिदिन पचास हजार से एक लाख और स्वाभिमान से तीन लाख रुपये मिलते रहे और दूरदर्शन ने इसे जारी रखा।Lengthy DD soaps shouldn't bore viewers'PRESS TRUST OF INDIA, Saturday, February 27, 1999)। सामाजिक सरोकार तो दूर इसने ऑडिएंस की अभिरुचि को भी ताक पर रखकर इसे प्रसारित किया। इस बीच ऑडिएंस मनोरंजन के नाम पर या तो बोर होती रही या फिर वो सब कुछ भी देखती रही जिसे दिखाने के खिलाफ स्वयं दूरदर्शन रहा है। दूरदर्शन के मुकाबले निजी मनोरंजन चैनल्स के सीरियल ज्यादा रोचक और अर्थपूर्ण जान पड़ते हैं। पूरा लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें- नया ज्ञानोदय मार्च 08. पेज न. 56-59 तक

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