Friday 1 May 2009

राजनीति में टेलीविजन,सरोगेट पार्टी वर्कर है


विज्ञापनों के माध्यम से छवि निर्मिति में सबसे बड़ी सहूलियत है कि इसे जरुरत के अनुरुप बदले जा सकते हैं, इसमें कुछ जोड़े-घटाए जा सकते हैं, नयी छवि पुनःस्थापित की जा सकती है।( डेनिअल बोअर्सटिनः1962,दि इमेज,पेज नं-186-87,न्यूयार्क,एथेनम)। 2004 में आडवाणी की छवि लौह पुरुष के रुप में बनायी गयी,2009 में आते ही वे युवा चेतना से लैश भाजपा के लिए मजबूत नेता यानी पीएम फॉर वेटिंग हो गए।( एनडीटीवी इंडियाः 8.06 बजे,8 अप्रैल,अखबार की कतरन पर लिखा-लौह पुरुषःआडवाणी) यह व्यक्ति के बजाय विज्ञापन के स्तर का बदलाव है। पार्टी कार्यकर्ता द्वारा किसी प्रत्याशी की छवि इतनी जल्दी नहीं बदली जा सकती लेकिन राजनीतिक विज्ञापन इसे संभव कर देता है।
छवि आधारित राजनीति का सबसे जरुरी पहलू है कि मतदाता अपने प्रत्याशी को किस रुप में देखना चाहता है। एक मतदाता टेलीविजन के माध्यम से भी अपने प्रत्याशी को देख रहा होता है तो उस पर दृश्य माध्यम का असर ज्यादा होता है। इसलिए पार्टी या उसकी स्वयं की विचारधारा, पारिवारिक या सामजिक पृष्ठभूमि,नेतृत्व क्षमता और यहां तक कि उसके अन्तर्वैयक्तिक संचार के तरीके को विजुअल्स रुप में दिखाने की कोशिशें होती हैं।( डैन एफ हॉनः1972,पॉलिटिकल मिथः दि इमेज एंड दि इश्यू. पेज न-57 टूडेज स्पीच 20,समर)। कांग्रेस अपने दोनों विज्ञापनों ( “तिनक तिनक तिन हाथ” और “जय हो”) में इसे विस्तार से स्थापित करती है। दोनों विज्ञापन मुख्य रुप से मनमोहन सिंह और राहुल गांधी को आदर्श प्रत्याशी के तौर पर स्थापित करना चाहता है. यह अलग बात है कि भाजपा की तरह कांग्रेस का कोई भी विज्ञापन प्रत्याशी केंद्रित न होकर पार्टी केंद्रित है। विज्ञापन राहुल गांधी को भाषण देते हुए,लोगों से मिलते-जुलते और बात करते हुए दिखाता है,मनमोहन सिंह भाषण देने की मुद्रा में मंच की ओर बढ़ते हैं, सक्रिय दिखाई देते हैं। दोनों प्रत्याशियों की पृष्ठभूमि को स्थापित करने के क्रम में कस्तूरबा गांधी, नेहरु,लालबहादुर शास्त्री,इंदिरा गांधी और राजीव गांधी जैसे राजनीतिक व्यक्तित्व के विजुअल्स शामिल किए गए हैं,प्रत्येक के साथ जुड़ी गतिविधियों को गाने के रुप में प्रस्तुत किया जाता है जिससे मतदाता-दर्शक को हिन्दुस्तान की तस्वीर बदल देनेवाले लोगों की परंपरा से जुड़ने का बोध पैदा हो। कांग्रेस इन विज्ञापनों के माध्यम से अपनी ऐतिहासिकता( जो उसके पक्ष में है) को विज्ञापित करती है।
राजनीतिक विज्ञापनों में मतदाता-दर्शक के महत्व को स्पष्ट करते हुए फिलिप कोटलर का मानना है कि पॉलिटिकल मार्केटिंग में प्रत्याशी को इस बात पर विशेष ध्यान देना होता है कि मतदाता क्या चाहता है बजाए इसके कि वो अनुमान लगाते रहे कि मतदाता क्या सोचता और चाहती है। (माउसरः1988,मार्केटिंग एंड पॉलिटिकल कैम्पेनिंगःस्ट्रैटजी एंड लिमिट्स,पेज नं-vii बेलमांट,बॉड्सवार्थ)। हमारे देश का मतदाता क्या चाहता है,इसकी अभिव्यक्ति मोबाइल फोन के एक विज्ञापन से बेहतर तरीके से हो जाती है। मंत्रीजी हमसे पूछ रही है कि खेतों में शॉपिंग मॉल बनना चाहिए कि नहीं,जनता ने कहा- न तो न। स्पष्ट है कि लोकतंत्र की राजनीति में मतदाता को प्राथमिकता के स्तर पर लिए जाने चाहिए । मतदाता चाहता कि देश के भीतर जो भी छोटे-बड़े फैसले हों,उनमें उनकी राय शामिल की जाए। इसलिए राजनीतिक विज्ञापन समाज के अलग-अलग हिस्सों और तबके के लोगों को शामिल करती है। विज्ञापन चाहे जिस भी पार्टी के क्यों न हो अधिक से अधिक लोगों के विजुअल्स को दिखाया जाना अनिवार्य समझा जाता है। इसे आप मायावती के पक्ष में जारी विज्ञापन में देख सकते हैं। बहुजन का हित जानते हैं/सर्वजन को मानते हैं/कौन की बात पुरानी/इंसानियत पहचानते हैं/जाति धर्म को भूल चुके हैं/मेरे पास उनका साथ है/( स्टार न्यूजः23 फरवरी,9.29 बजे रात)। कांग्रेस इसे और अधिक रचनात्मक तरीके से प्रस्तुत करता है. एक युवा दीवार पर कई रंगों को मिलाता है और फिर दूसरे से सवाल करता है, बताओ इसमें कितने रंग हैं। इससे कांग्रेस की छवि सांप्रदायिक सद्भावना और मिली-जुली संस्कृति को प्रोत्साहित करनेवाली पार्टी के रुप में बनाने की कोशिश है।(एनडीटीवी इंडियाः8.46 बजे 9 अप्रैल)
देशभर की राजनीतिक पार्टियों के साथ एक आम समस्या है कि वह अपने प्रत्याशी को दूसरे प्रत्याशी से बेहतर बताए इसके पहले राजनीतिक व्यक्ति होने की छवि को(चाहे जिस किसी भी पार्टी का क्यों न हो) साकारात्मक रुप में कैसे स्थापित की जाए। बैटरी के एक विज्ञापन में यहां के राजनीतिक व्यक्ति की छवि इस प्रकार है- हमरा वादा रहा,चौबीस घंटे बिजली....बस पांच साल और। जनता- इलेक्सन तो आता जाता रहता है लेकिन बिजली तो जाती ही है।(जी न्यूजः 10.15बजे रात,10 अप्रैल,एक्साइड इन्वर्टिकुलर का विज्ञापन ) । राजनीतिक विज्ञापन इस छवि को तीन कारकों के माध्यम से बेहतर करने की कोशिश करता है। 1.उच्च योग्यता सच्चरित्र और उर्जावान 2. अन्तर्वैयक्तिक आकर्षण या प्रभावी व्यक्तित्व और 3. सहजता( ट्रेंट जूडिथ,रॉबर्ट फ्रेडेनवर्गः1983, पॉलिटिकल कैम्पेन कम्युनिकेशनः प्रिंसिपल एंड प्रैक्टिसेज, पेज न-75 न्यूयार्क प्रेइगर)। इसलिए टेलीविजन के विज्ञापनों में दिखाए जानेवाले राजनीतिक व्यक्तित्व को पोशाक, हाव-भाव,प्रस्तुति और अंतर्वैयक्तिक व्यवहार के स्तर पर विशिष्ट दिखाने की कोशिशें की जाती है। यह न सिर्फ एक प्रत्याशी को बेहतर रुप में प्रस्तुत करने की कोशिश होती है बल्कि राजनीतिक व्यक्ति की छवि को मरम्मत करने का भी काम होता है। इस दृष्टि से राजनीतिक विज्ञापनों की अनिवार्यता बढ़ जाती है।
मौजूदा चुनाव में राजनीतिक विज्ञापनों की अनिवार्यता के संदर्भ में मैक् कैबी का मानना है कि मुझे तो इस बात पर हैरानी होती है कि जो इंसान अपने पक्ष में जोरदार विज्ञापन नहीं कर सकता,वह किसी देश को कैसे नियंत्रित कर सकता है।( सं. मैक् कैबीः1988,दि कैम्पेन यू नेवर शॉ,पेज 48,न्यूयार्क 12 दिसंबर)। मैक् कैबी की इस मान्यता से स्पष्ट है कि चुनाव अब सिर्फ जनसम्पर्क,मुद्दे और राजनीति के आधार पर लड़े औऱ जीते नहीं जा सकते। छवियों की इस लड़ाई में, राजनीतिक विज्ञापनों का प्रयोग अब नैतिकता के सवाल और बहस से बाहर, व्यावहारिक दृष्टिकोण का मामला बनता जा रहा है। सारा जोर इस बात पर है कि कौन कितने बेहतर तरीके से अपनी छवि प्रस्तुत कर सकता है। राजनीतिक पार्टियों और प्रत्याशियों के बीच का सारा तनाव इस बात को लेकर है कि वे किस रुप में दिखें( क्या हैं इसकी चिंता किए बगैर) जिससे कि चुनाव में उनके पक्ष में आधार बने। (डेनिअल बोअर्सटिनः1962,दि इमेज,पेज नं-186-87,न्यूयार्क,एथेनम). छवियों की इस लड़ाई का एक उदाहरण कांग्रेस के “जय हो” और बीजेपी द्वारा इसके विरोध में बनाए गए “भय हो” के विज्ञापन में आसानी से मिल जाते हैं। कांग्रेस के इस विज्ञापन में विकास कार्य की एक लंबी फेहरिस्त है- देख लो/कर दिखाया/नयी सड़को से ये विकास/देख लो,अरे कर लो,तुम भरोसा/रोजगार का हक है तुम्हारे पास/उंची शिक्षा,स्वास्थय का धन है/( यूट्यूब)। इसके जबाबी कार्यवाई के रुप में भाजपा की ओर से प्रसारित विज्ञापन है-
रत्ती रत्ती सच्ची हमने जान गंवाई है/भूखे पेट जाग-जाग रात बिताई है/मंदी की मार में,नौकरी गंवा दी/मंदी हो/आतंक हो/मंहगाई हो/फिर भी जय हो/
इसके साथ ही बीजेपी ने इसे ट्रेन एक डिब्बे में फिल्माकर यह स्थापित करने की कोशिश की है कि देश के आम आदमी की क्या स्थिति है। भय हो गानेवाले बच्चे को देखकर आपको पुरुलिया और मिर्जापुर के रास्ते खाली बोतलें बटोरनेवाले बच्चों का ध्यान आ जाएगा। इस मुकाबले कांग्रेस का जय हो विज्ञापन प्रायोजित जान पड़ता है जबकि बीजेपी का विज्ञापन प्रायोजित होने के वाबजूद भी स्वाभाविक नजर आता है।
मूलतः नया ज्ञानोदय मई 09 में प्रकाशित
टेलीविजन,राजनीतिक विज्ञापन और छवि निर्माण का लोकतंत्र
आगे भी जारी...

1 comment:

  1. मीडिया की बनाई छवियों के हिसाब से हमारा वोटर वोट देता है.... भाई, ये विचार कमाई का ज़रिया बनाए रखने के लिए तो ठीक हो सकता है पर ये बात वास्तव में ही सही होती तो,

    1---मीडिया द्बारा, 15 साल तक लालू को मसखरे की तरह दिखने के बाद भी लोग जिताते न रहते. और आज लालू को सफलतम रेल मंत्री बताने के बावजूद, हार से डरे लालू 2-2 जगह से चुनाव न लड़ रहे होते.
    2---अगर मीडिया इतना ही प्रभावी होता तो 2004 में "इंडिया शाइनिंग" के बावजूद बीजेपी हारती नहीं.
    3---1977 में, आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी हारती नहीं.
    4---अगर ऐसा होता तो शीला दीक्षित तीसरी बार चुनाव नहीं जीतती.
    5---दिल्ली में एक कालोनी है, द्वारका. इसके लोंगों को पता तक नहीं की 5 दिन बाद होने वाली वोटिंग में किस पार्टी का कौन उम्मीदवार खडा है. द्वारका,100% शिक्षित बहुत बड़ी कालोनी है जिसमें, मध्यवर्ग और उच्च- मध्यवर्ग परिवार रहते हैं, लिहाजा सभी मीडिया देख-पढ़-सुन-समझ सकते हैं. लेकिन इसके बावजूद, कोई प्रत्याशी पाई खर्च कर के ये बताने तक को भी तैयार नहीं की वोह चुनाव लड़ रहा है..क्योंकि उसे पता है की क्या फायदा...लोग अपनी मर्ज़ी से ही वोट देंगे.

    सच तो ये है कि, लोगों को पता है कि उन्हें क्या करना है. इस बीच, अमीरों की कठपुतली बेचारे मीडिया के आदर्शवादी गरीब पत्रकार यूं ही गाल बजाते घूमते रहते हैं, इस मुगालते में कि देश का लोकतंत्र उन्हीं ने चला रखा है.

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