Sunday 26 July 2009

बरखा दत्त की फिल्म के बहाने जरा सोचिए



विजय दिवस के नाम पर पर देश के अधिकांश हिन्दी चैनल भले ही लोगों को शर्तिया तौर पर भावुक करने में जुटे हों,हम तुम्हें आज रुला कर ही छोड़ेगे के अंदाज में भाषा और शब्दों का जबरन इस्तेमाल कर रहे हों लेकिन इन सबसे अलग NDTV24*7 पर बरखा दत्त की ओर से पेश की गयी,लगभग चालीस मिनट की फिल्म REMEMBERANCE KARGIL TEN YEARS LATER ये साबित कर देती है कि कम शब्दों के जरिए भी हम संवेदना के स्तर पर मजबूती से बात कर सकते हैं। ऐसे मौके पर हिन्दी के तमाम न्यूज चैनल्स जहां टेलीविजन को टेलीविजन रहने ही नहीं देना चाहते,वो उसे रेडियो में कन्वर्ट करने पर आमादा हो जाते हैं वहीं बरखा दत्त इस फिल्म के जरिए टेलीविजन की ताकत को रिडिफाइन करती नजर आती है। अभिव्यक्ति के स्तर पर ये पूरी फिल्म इस थ्योरी पर बनी है कि-SOME MOMENTS ARE WORDLESS. कुछ ऐसे ही मौके होते हैं जहां कि कुछ भी कहना नहीं होता,उसके लिए कुछ शब्द भी नहीं होते, गहराई तक जाने के लिए बस हमें उससे होकर गुजर जाना भर होता है। टेलीविजन की जरुरत औऱ ताकत यहीं समझ में आती है। आज हम बरखा दत्त से इसलिए प्रभावित नहीं हो रहे कि वो अंग्रेजी भाषा की पत्रकार हैं। अगर ऐसा होता तो देश की वो महिलाएं इसे कभी नहीं जान पातीं जिनका कि अंग्रेजी चैनलों से कोई सरोकार नहीं रहा है लेकिन सच्चाई ये भी है कि आज देश में कोई भी महिला पत्रकार को जानता है तो वो बरखा दत्त के आगे जाकर रुक जाता है। इस फिल्म को देखते हुए मैंने बार-बार महसूस किया कि इसे देखने के लिए कोई जरुरी नहीं कि आपको अग्रेजी आए बल्कि एप्रोच की वो सादगी औऱ संजीदापन है कि आपको चालीस मिनट तक बांधे रखती है। इसलिए इसे अंग्रेजी बनाम हिन्दी का मामला बनाना बे सिर-पैर का विमर्श होगा। इसका संबंध ऑडिएंस के मेंटल लेबल पर भरोसा करने और न करने से है जिसमें कि हिन्दी चैनल अक्सर गच्चा खा जाते हैं या फिर धोखा कर जाते हैं।

फिल्म की शुरुआत बहुत ही सादे और स्वाभाविक तरीके से होती है। बरखा दत्त करगिल के उन इलाकों में पहुंचती है जहां से कि आज से ठीक दस साल पहले 26 साल की उम्र में होकर गुजरीं,करगिल युद्ध को कवर किया और देशभर में इतनी पॉपुलर जर्नलिस्ट बनी कि बॉलीवुड ने इसकी छवि का इस्तेमाल करते हुए लक्ष्य जैसी फिल्म बनायी। REMEMBERANCE KARGIL TEN YEARS LATER में बरखा दत्त की उस टीम की फुटेज को भी शामिल किया गया है जिसमें उनके साथ तीन और पत्रकार अजमल ज़मी(बतौर कैमरामैन),गौरव सावंत और शशि शामिल रहे थे। इसके अलावे सेना के तीन लोगों के साथ बराबर उनका सम्पर्क रहा-कैप्टन बत्रा,विशाल थापा औऱ कमांडर बाइ.के.जोशी। दस साल बाद अब जब वो दोबारा वहां पहुंचती हैं तो कैमरामैन के अलावे बाकी की टीम नहीं रह जाती,मीडिया शर्तों औऱ प्रायरिटी को लेकर काफी कुछ बदल गया है लेकिन कवर करते हुए वो सारी यादें अब भी बरकरार है। खुद बरखा दत्त के शब्दों में-memory comes in waves. इधर कैप्टन बत्रा के शहीद हो जाने के बाद उनका भाई विशाल बत्रा बरखा दत्त के साथ है। विशाल थापा( माउंनटेन ट्रेनी ऑफिसर) औऱ बाइ.के.जोशी जो कैप्टन बत्रा के साथ साये की तरह खड़े रहे, फिल्म बनाने के दौरान अब भी बरखा दत्त का साथ दे रहे हैं। इस हिसाब से देखे तो इस फिल्म में करगिल दो हिस्सों में बार-बार सामने आता है।


एक इतिहास का जिसमें कि युद्ध है,बम के धमाके हैं,उन धमाकों के बीच कैप्टन बत्रा का हिन्दी सिनेमा के प्रति का प्यार है,बाहर हो रहे गोलाबारी को डेलीरुटिन का हिस्सा मानते हुए,टेंशन रिलीज करने के लिए कॉस्मोपॉलिटन पत्रिका के पुराने पड़ चुके पन्नों को पलटते जवान हैं। टाइगर हिल के बहुत ही नजदीक बने बंकर में चौबीस घंटे तक लगातार अंजान लोगों के बीच बैठी खुद बरखा दत्त है,उसके सवाल हैं और उन सवालों का बड़े ही फिलॉस्फीकल अंदाज में जबाब देते विशाल थापा हैं। बरखा सवाल करती है कि क्या उन्हें घर परिवार की याद नहीं आती। इस पर विशाल थापा का जबाब है कि उन्हें ये याद एक छोटी फिल्म की तरह लगती है। बचपन,प्यार,घर,रिश्ते और बाकी चीजें भी याद आती है,लेकिन बहुत तेजी से रील की तरह घूमकर खत्म हो जाती है औऱ हम उससे बाहर निकल आते हैं। इसी दौरान एक जवान का उल्टे बरखा से सवाल है- आप भी हमलोगों की तरह जिंदगी जीती हुई रिपोर्टिंग कर रही हैं कि ये खबर हमारे घर में सबसे पहले आप पहुंचाएं...आपको याद नहीं आती। यहां पत्रकारिता परिभाषित होती है जिसे कि आगे जाकर बरखा दत्त एक सवाल के तौर पर हम ऑडिएंस के सामने रखती है कि-ये वो दौर था जबकि हमारे पास सेलफोन नहीं हुआ करते थे,कंटेट को दिल्ली तक पहुंचाना आसान नहीं था,अपलिंकिंग का काम इस तरह संभव नहीं था,ये देश का पहला टेलीविजन बार था,जिसमें कई चीजें आ पायीं,कई छूट गयी लेकिन आज जब हमारे पास ये सारी सुविधाएं हैं,क्या हम ऐसा कर पाते हैं,कर पा रहे हैं? इस पहले हिस्से में कैप्टन विक्रम बत्रा है जो कि एक कॉमर्शियल-ये दिल मांगे मोर को अपनी जिंदगी की पंचलाइन बनाते हुए जीते हैं।

फिल्म के दूसरे हिस्से में करगिल का दूसरा संस्करण है। कैप्टन बत्रा का भाई विशाल बत्रा है जो कि एक-एक घास,पत्थरों और पेड़ों की तस्वीर कैद करना चाहते हैं जिसे देखकर लगता है कि उसके भाई का संबंध उससे है। वो बत्रा हिल पर बैठकर अपने भाई को अंतिम चिठ्ठी लिखते हैं। विशाल थापा है जो इस सच को बयान करता है कि किसी भी देश का सैनिक अपने पक्ष में किसी भी तरह का युद्ध नहीं चाहता लेकिन देश की आर्थिक,सामाजिक औऱ राजनीतिक परिस्थितियां ऐसा करके लिए मजबूर करती है। कमांडिंग ऑफिसर बाइ.के.जोशी हैं जो कि मानते हैं कि सब शांति चाहते हैं लेकिन बिडंबना है कि इसके लिए युद्ध भी होते रहने हैं। इस दूसरे हिस्से में जोशी की बेटी इशिता है जो युद्ध के समय मात्र सात साल की थी और उसे उस युद्ध के बारे में सिर्फ इतना भर याद है कि वो अपनी मम्मी के बताने पर टेलीविजन स्क्रीन पर बोल रहे अपने पापा को पहचान पायी। इन सबके बीच फिर बरखा दत्त है जो विशाल थापा से सवाल करती है कि-आपको नहीं लगता कि आपलोगों ने जो कुछ भी किया-देस के लोग उसे भूलते जा रहे हैं,लोग इसे इजली और लूजली लेते हैं। थापा इसे व्यक्ति की पर्सनल फीलिंग मानते हैं। बंकर को देखते हुए बरखा कहती है- ये अपना बंकर था। थापा उसे गन पाउडर की याद दिलाते हैं। बरखा उनसे डेथ स्मेल के बारे में सवाल करती है। थापा का जबाब होता है-death has no smell,death has its effect.. बरखा इस युद्ध को केलकर विशाल को किसी एक तस्वीर याद करने को कहती है। विशाल थापा किसी एक तस्वीर को याद नहीं कर सकते,वो सब एक-दूसरे से मिलकर क्लस्टर हो गए हैं। यही समस्या अजमल जमी के सामने आयी। कोई एक स्थिर चेहरा नहीं,कोई-कुछ भी तय नहीं,सब कुछ उजड़ता हुआ,खत्म होता हुआ। ऐसे में कुछ भी दिखा पाना बता पाना,सबसे ज्यादा मुश्किल होता है। लेकिन इन्हीं मुश्किलों के बीच से फिल्म में संवेदना,जेनुइननेस,स्वाभाविकता औऱ परफेक्टनेस आ पायी है। जबकि संभवतः इसी मुश्किल से बचने की तमन्ना अधिकांश हिन्दी चैनलों को खबर के बजाय मेलोड्रामा की तरफ धकेलती है।


सच तो ये है कि कई बार टेलीविजन में कुछ भी बोलने की जरुरत ही नहीं होती,केवल फुटेज का ही हमारे उपर इतना असर होता है कि हमारी आंखों से अपने-आप ही आंसू निकल जाते हैं,अपने-आप ही चश्मे की फ्रेम पोछने लग जाते हैं,टेबुल पर रखी कॉफी ठंडी हो जाती है,हम बिल्कुल चुप हो जाते हैं। REMEMBERANCE KARGIL AFTER TEN YEARS में ऐसे मौके बार-बार आते हैं जब हम अज्ञेय की पंक्तियों को मन ही मन बार-बार दोहरते हैं- मौन भी अभिव्यंजना है/उतना ही कहो/जितना तुम्हारा सच है। बरखा दत्त इस फिल्म के जरिए इसका खास ध्यान रख पाती है।


करगिलःविजय दिवस संवेदना और अनुभव के वो क्षण रहे हैं जहां अगर तथ्यों के अलावे कुछ भी बोला जाए तो लगता है कि टेलीविजन और ऑडिएंस के बीच एंकर जबरदस्ती शोर पैदा करने के काम किए जा रहे हैं। पिछले तीन दिनों से आपमें सो जो भी इससे जुड़ी कवरेज को देख रहे होंगे तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि हिन्दी न्यूज चैनल किस तरह से बड़बोलेपन के शिकार होते चले जा रहे हैं,लगातार बोलते रहने की आदत उनके उपर इस कदर हावी है कि वो तय ही नहीं कर पाते कि उन्हें कितना बोलना है,किस बात से कहां तक के अर्थ पैदा हो सकते हैं,शब्दों की तासीर का क्या मतलब है?उनके लिए शब्दों की ताकत का मतलब अर्थ पैदा करने से नहीं बल्कि ज्यादा से ज्यादा हमारे बीच ठेलने से है। नतीजा ये होता है कि शब्दों के साथ-साथ विजुअल्स की ताकत भी खत्म होती चली जाती है। जब हम टेलीविजन देख रहे होते हैं तो एंकर के अनावश्क विश्लेषण से लगातार जूझ रहे होते हैं,जो चीजें हमें दिखाई दे रही होती है और उसकी गहराई तक हम घुसना चाहते कि इसके पहले ही एंकर इसे देखिए,गौर से देखिए के प्रयोग से हम बुरी तरह डिस्टर्ब होते हैं। हम विजुअल्स में समाए अर्थ की परतों को खोलना चाहते हैं लेकिन एंकर और व्आइस ओवर एकहरे अर्थ को एस्टैब्लिश करने को इतने उतावले हैं कि आप ऐसा कर नहीं पाते। इस तरह स्क्रीन पर के विजुअल्स को समझने की जद्दोजहद और चैनलों के लोगों की ओर से नहीं समझने देने की छीनाझपटी के बीच हम लगातार एक ऐसे दौर से गुजरते हैं जहां हम देखकर समझने का सुख और चैनल हमें बांधे रखने की ताकत खोते चले जाते हैं। तब झल्लाहट में हमें सारे चैनल एक से और झौं-झौं करते नजर आते हैं।


REMEMBERANCE KARGIL AFTER TEN YEARS में कई ऐसे विजुअल्स हैं जिसका कि न्यूज चैनलों के हिसाब से कोई अर्थ नहीं है। पूरी स्क्रीन पर पेड़ से लगा हुआ एक अकेला हिलता पत्ता,पेड़ों की छोटी-छोटी टहनियों के बीच फंसा एक कौआ,हाहाकार मचानेवाली झील औऱ सरोवर की लहरों के बजाय टप-टप गिरती उससे पानी की बूंदे,सिर्फ पहाड़ औऱ कुछ भी नहीं। आप ही बताइए इसका क्या अर्थ है,अगर आप बीच-बीच में स्क्रीन पर NDTV24*7 का लोगो नहीं देखें तो आपको लगेगा ही नहीं कि आप न्यूज चैनल पर ये सब देख रहे हैं। तभी बम धमाके के कई फुटेज एक साथ,ये किसी भी चैनल के काम के हैं।। इस वक्त भी लगेगा कि आप एचबीओ या वर्ल्ड मूवी पर कोई क्लासिकल फिल्म देख रहे हैं। इन दोनों फुटेज के बीच बरखा दत्त की इतनी-सी बात कि BUT MOUNTAINS ARE PURE,MOUNTAINS ARE BEAUTIFUL,चैनल के लिए गैरजरुरी पत्तों और कौओं के फुटेज और केवल धमाके की जरुरी फुटेज मिलकर एक नया अर्थ पैदा करता है। तब आप एक-एक फुटेज में छिपके कई अर्थ के छिलके उतारने की कोशिश करते हैं। इसी समय आप कैमरामैन का नाम जानना चाहते हैं। कम शब्दों के बीच बाकी के लोगों को जानने की गुंजाइश बनती है। लगातार विजुअल्स के दिखाए जाने के बीच बहुत ज्यादा बोलने की जरुरत न दिखलाते हुए बस इतना भर कहना है कि-memory comes in waves, ये एक्सप्रेस हाइवे है,वट नाउ वी कॉल इट हाइवे ऑफ डेथ,सब कुछ बता देता है कि पिछले दस साल के भीतर कितने शब्द बदल गए,नाम बदल गए,हमारे सोचने का तरीका बदल गया। फिल्म में वो बार-बार दोहराती है कि इस करगिल वार ने उसे सोचने का नजरिया बदल दिया,मिलेटरी के बारे में सोचने का तरीका बदल दिया। वो भी हाड़-मांस के होते हैं और उनके भीतर भी दिल धड़कता है,उन्हें भी घर की याद आती है इससे ज्यादा और इमोशनल क्या हुआ और किया जा सकता है कि बरखा दत्त करगिल की यादों को एक कोल्डस्टोरेज में रखती चली जाती है कि कभी मौके पड़ने पर उसे फ्रीज से बाहर निकालेगी और फिर से उसे याद करेगी। कितनी तेजी से ये यादें फ्रीज होती चली जा रही है,हम इसे अपने-अपने स्तर पर महसूस कर सकते हैं।


इधर आप हिन्दी चैनलों को बदलते चले जाइए। शब्दों का प्रयोग थोक के भाव में हो रहे हैं,एक से एक कसीदे पढ़े जा रहे हैं,कुर्बानी बेकार नहीं जाएगी,देश को उस पर अभिमान है...वगैरह-वगैरह। इन शब्दों पर गौर करें तो आपको 1947 की आजादी और उनसे जुड़े शहीदों के लिए जिन शब्दों का इस्तेमाल दूरदर्शन लंबे समय से करते आ रहे हैं,सबों का रिवीजन हो जाता है। हिन्दी चैनल इस करगिल विजय पर इतिहास की इतनी गहरी लेप चढ़ाने की जुगत में नजर आते हैं कि लगता नहीं कि ये महज पिछले दस साल पहले की घटना है। मैं ये बिल्कुल भी कहना नहीं चाहता कि पुराने शब्दों के प्रयोग से तात्कालिकता खत्म होती है और न ही शब्दों की कोई वैलिडिटी पीरियड होती है लेकिन इतना तो जरुर है कि हजार-बारह सौ शब्दों से काम चलानेवाले हिन्दी चैनलों की लाचारी ऐसे मौके पर साफ झलक जाती है। क्या ऐसा स्टूडियो या फिर शहीद कैप्टन कुलदीप नय्यर पेट्रोल पंप के आगे से पीटीसी देने का असर है कि हम करगिल विजय को बहुत ज्यादा ऐतिहासिक मानने लगते हैं जबकि बरखा को करगिल के मास्को वैली से गुजरते हुए 1997 की घटना,ऐसा लगता कि मानो कल की घटना है। क्या सुविधाजनक स्थिति और फास्ट फूड कल्चर की पत्रकारिता हमें चीजों को सही संदर्भ में पेश करने की काबिलियत पैदा नहीं कर पाती। फिल्म देखते हुए हमें इस सिरे से भी सोचना की जरुरत महसूस होती है कि तकनीकी स्तर पर हम पहले से मजबूत होने के वाबजूद भाषायी स्तर पर हम हम इतने लचर क्यों होते जा रहे हैं कि टेलीविजन का कुछ भी बोलना हमें बकवास लगता है,बनावटी लगता है,जिंदगी लाइव नहीं लगती। हम कभी-कभी क्यों दूरदर्शन की थकाउ भाषा का रुख कर लेते हैं, जिसमें अभिव्यक्ति के शब्द नहीं औपचारिकता के टेक्कनीकल वर्ड भर होते हैं। सोचना जरुरी है।

4 comments:

  1. मैं आपसे से बिलकुल सहमत हूँ. टेलिविज़न का जो उद्देश्य था उसे इनके एंकर अपने लचर और उबाऊ भाषण से समाप्त करने पर तुले हुए हैं. ऐसे में टी0 वी० बंद कर देने या फिर चैनल बदल देने के सिवा और कोई चारा नहीं बचता. शायद दृश्यों की भाषा इन्हें आती नहीं या फिर हिंदी दर्शक को ये इतना जाहिल समझते हैं कि वह इनके बताये या समझाए बगैर कुछ जान ही नहीं पायेगा. या फिर लगातार बकवास करके ये अपनी प्रासंगिकता और उपस्थिति का अहसास करना चाहते हैं.

    एक और शिकायत है.......... दृश्यों के साथ इतना कानफोडू बैकग्राउंड म्यूजिक चलाया जाता है कि न तो इनके संवाद सुनाई देते हैं न ही वाइसओवर ऐसे में कार्यक्रम को देखते रहना समय की बर्बादी ही लगती है...........

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  2. सच एक अच्छी फिल्म। आपने सही कहा। मुझे भी अच्छी लगी यह फिल्म। इसका असर बहुत देर तक रहा और रहेगा। बाकी स्टोरी के मुकाबले। कई बातें इस फिल्म में बहुत गहरी कही गई। जिनका गहरा असर होता है। आपके मर्म को छूता है। आप जैसा विशलेषक नही हूँ। पर फिल्म अच्छी थी।

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  3. ye sach hai ki tv news khabron ke saath satahi tarike se treat karte hain.... shayad in logon ne maan liya hai ki darshak jayenge kahan?

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  4. bandhu sach kahu to maine tv bahut hi kam dekhta hu.
    lekin aapki ye reporting aur vishleshn prabhavi hai, is se is pure program ko samajh saka aur ye kah sakta hu k maine ek accha program miss kar diya

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